SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन जैन आगमों में जैन दर्शन की भूमिका ११३ मैंने इतः पूर्व वाचनाओं का निर्देश किया है। माथुरीवाचनांतर्गत अंग ग्रन्थ जो हमें उपलब्ध हैं उसी के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ । जितने भी अंगबाह्य ग्रन्थ हैं, खास कर उपांग, उन्हें यदि देखा जाय तो उनमें 'अंग आगम से हमने यह बात कही है। और उसके लिए अमुक अंग आगम देखे" ऐसा निर्देश नहीं आता' । पन्नवणा के प्रारम्भ में उसे दृष्टिवाद का निस्यंद कहा है किन्तु तदतिरिक्त जो अंग आगम आचार आदि हैं उनका साक्षी के रूप में निर्देश नहीं आता। दृष्टिवाद से उद्धरण की बात की चर्चा एक अलग व्याख्यान का विषय हो सकता है- सामान्य रूप से मैं वहाँ इतना कह देना चाहता हूँ कि क्योंकि दृष्टिवाद का विच्छेद माना गया था किसी भी नयी बात को आचार्य को कहना हो तो दृष्टिवाद से मैंने यह बात कही है यह कह देना आसान था जैसे वैदिकों ने उसश्रुति का आश्रय लेकर कई नई परम्परा को चलाया है - यही प्रक्रिया जैनों में भी देखी जाती है । किन्तु माथुरीवाचनान्तर्गत अंग आगमों में जैसे कि भगवती - व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे बहुमान्य आगम में भी जहाँ भी विवरण की बात है वहाँ अंगवाय उपांगों का औपपातिक, पन्नवणा, जीवाजीवाभिगम आदि का आश्रय लिया गया है । यदि ये विषय मौलिक रूप से अंग के होते तो उन अंगवाद्यों में ही अंगनिदेश आवश्यक था । ऐसा न करके अंग में उपांग का निर्देश वह सूचित करता है कि तद्विषयकी मौलिक विचारणा उपांगों में हुई है। और उपांगों से ही अंग में जोड़ी गई है । यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों किया गया। जैन परंपरा में यह एक धारणा पक्की हो गई है कि भगवान महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में प्रथित किया। अर्थात् अंगग्रन्थ गणधरकृत हैं, और तदितर स्थविरकृत हैं। अतएव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को ही मिला है। अतएव नयी बात को भी यदि प्रामाण्यं अर्पित करना हो तो उसे भी गणवरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अगांतर्गत कर लिया गया। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई। किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंगवाद्य भी गणधरकृत है और उसे पुराण तक बढ़ाया गया। अर्थात् जो कुछ जैन नामसे चर्चा हो उस सबको भ. महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका सम्बन्ध भगवान और उनके गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को संदेह करने का अवकाश मिलता नहीं है । इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भ. महावीर के उपदेश में ही है यह एक मान्यता दृढ़ हुई । इसके कारण बीसवी सदी. में लिखने वालों का भी यही आग्रह रहता है कि वह जो कुछ कह रहा है. वह भ. महावीर के उपदेश का ही अंश है। नतीजा यह है कि साधारण मनुष्य विवेक नहीं कर सकता कि भ. महावीरने क्या कहा और क्या न कहा । यह विवेक मूलग्रन्थों के तटस्थ अभ्यास के द्वारा ही हो सकता है और इसी ओर ध्यान दिलाना ही मेरा प्रस्तुत व्याख्यान का उद्देश्य मैंने माना है और संक्षे में यह दिलाने का प्रयत्न किया है कि उनका मौलिक उपदेश क्या था। विद्वानों से मेरा निवेदन है कि वे इस दृष्टि से अपने संशोधन में आगे बढे । १ अपवाद है जहाँ भगवती के पंचम शतक के दसवें उद्देश का उल्लेख है - जंबुद्दीव पण्णत्त सु० १५० । १५ Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy