SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन जैन आगमों में जैन दर्शनकी भूमिका १११ श्रमणों के आचार का विवरण देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि नियम रूप से पांच महाव्रतों के स्वीकार की कोई चर्चा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में नहीं है । सूत्रकृत प्रथमस्कंध की एक गाथा में प्राणातिपातादि पांच दोषों का उल्लेख एक साथ है और कहा गया है कि 'जिणसासण परंमुहा' जो हैं वे इन दोषों का पोषण स्त्री के वश होकर करते हैं (२३२-२३३ ) किन्तु इस प्रकार पांचों दोषों का कोई उल्लेख एक साथ आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में नहीं है । और नहीं एक साथ उनकी विरति की चर्चा आचारांग में है। इससे स्पष्ट होता है कि भ्रमणों की पांच महाव्रत का स्वीकार करना चाहिए यह प्रक्रिया कालक्रम से जैन संघ में आई है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों यह मानते हैं कि प्रारम्भ में श्रमण सामायिक व्रत का स्वीकार करते है इससे भी सूचित होता है कि भ्रमण बनने की यही प्रक्रिया थी और सूत्रकृत में तो स्पष्ट ही लिखा है कि भगवान महावीर ने ही सर्व प्रथम सामायिक का उपदेश दिया - " हि णून पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो समुडियं । मुणिणा सामाइ आहियं णाएण जगसव्वदं सेणा ॥ सूत्रकृत - १४१. सब पापों का मूल आचारांग के उपदेश का सार देखना हो तो यही है कि संसार में षड्जीवनिकाय हैं। सभी सुख चाहते हैं दुःख कोई नहीं चाहता, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव किसी भी प्राणी या जीव को पीड़ा देना नहीं चाहिए। जैसा मुझे सुख प्रिय है, सभी को सुख प्रिय है अतएव किसी को पीड़ा देना नहीं चाहिए यही समताभाव है जो सामायिक है । इसी प्रश्न को लेकर भगवान का उपदेश हुआ । इसी अहिंसा में से सत्यादिका स्वीकार हुआ। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में ही भगवान महावीर ने यह कहा है कि परिग्रह ही बन्धन है और उसी के कारण जीव हिंसा आदि का आचरण करता कराता है । इस दृष्टि से देखा जाय तो भ. महावीर की दृष्टि में परिग्रह को ही माना गया । और यही कारण है कि उन्होंने अपने श्रमण जीवन में नग्नता का स्वीकार किया और अचेलधर्म का प्रतिपादन किया । यह स्वाभाविक है कि यह कठोरतम धर्म था जिसकी निंदा भ. बुद्ध ने को है । जिस प्रकार अतिभोग एक एकांत हैं उसी प्रकार भोग का आत्यंतिक त्याग आत्मा को अतिकष्ट देना भी दूसरा एकान्त है। अतएव भ. बुद्ध ने तो दोनों अंतोको छोड़कर मध्यम मार्ग का स्वीकार किया। यही कारण है कि जैन श्रमण परम्परा में भी भ. महावीर का आत्यंतिक अचेलक मार्ग पनपा नहीं और श्वेताम्बर संप्रदाय या सचेलक सम्प्रदाय का उद्भव हुआ है । दिगम्बरों में भट्टारक सम्प्रदाय भी इसी बात की पुष्टि करता है कि आतिक कष्ट का मार्ग सबके लिए प्रशस्य नहीं है। हम भले ही मध्यममार्ग को शिथिलमार्ग कह करके उसकी निन्दा करें किन्तु सर्वजन सुलभ तो यही मार्ग हो सकता है । और जैन श्रमण परम्परा का इतिहास भी इसकी पुष्टि करता है कि अनेक बार अति उत्कट क्लेश के मार्ग को अपनाने का प्रयत्न हुआ किन्तु उसमें सफलता कुछ समय तक ही सीमित रही है उस अन्तिम आदर्श की तारीफ अवश्य करें किन्तु मध्यममार्ग की निंदा तो न करें - यही उचित हो सकता है । १स में अकरणि २ अ० १५, ० १०१२ ( महावीरचरित) २ सूत्रकृतांग में भी नग्नता की ही प्रतिष्ठा भ्रमण के लिए निर्दिष्ट है- "जस्साए कीरह नगभावे मुंडभावे " सु० ७१४, १०९८५ । Jain Education International पापकम्मं ति कट्टु सामाइयं चरिचं पडिवण्ज" आचारांग श्र० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy