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________________ प्राचीन जैन आगमों में जैन दर्शन की भूमिका पण करनेका यत्र तत्र प्रयत्न किया है किन्तु मूल तत्त्वार्थपूत्र में दोनों सम्प्रदायों की मान्यता की एकरूपता स्पष्ट होती है । दिगंबरों को मान्य मूलाचार' जो आ. वट्टकेर या कुन्दकुन्दकी कृतिरूप से माना जाता है उसमें भी स्त्रीमुक्तिका समर्थन देखा जाता है । यह भी सिद्ध करता है कि उस विषय में सैद्धांतिक मतभेद की जड़ उसके बाद हो कभी हुई है। उसमें लिखा है "एवंविधाणचरियं चरंति जे साधवो य अज्जाओ। ते जंगपुज्ज कित्तिं सुहं च लण सिज्झति ॥ ___ मूलाचार ४. १९६, पृ० १६८। भौलिक नियुक्ति में भी स्त्री-मुक्ति का प्रश्न चर्चित नहीं है। मूलनियुक्तिमें बोटिक निह्नव का भी उल्लेख नहीं हैं जो बाद में उसमें जोड़ा गया यह इस लिए स्पष्ट है कि उतराध्ययनमें निह्नवों सम्बन्धी जो गाथा है, उसमें बोटिक निह्नव का उल्लेख नहीं है। यह उल्लेख बाद में आवश्यकनियुक्ति में जोड़ा गया है-इससे यह स्पष्ट है क्यों कि आवश्यकनियुक्ति के निर्माण के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति का निर्माण हुआ है फिर भी उसमें यह निव न पाया जाय तो स्पष्ट होता है कि आवश्यकनियुक्ति में ही यह बादमें जोड़ा गया। और ठाणांग में भी सात ही निह्नवों का उल्लेख है - ठाण ७४४ । स्थानांग-समवायांग पृ.३२७३३५ । उत्तरा. नि० गा० १६४ से । आवश्यक नि० गा०७७८ से । आगम कब कितने ? अंग आगम बारह हैं- इस मान्यता को स्थिर होने में भी समय गया होगा। इसके प्रमाण स्वयं श्वेताम्बरों के आगम ही दे रहे हैं। स्वयं प्रथम भद्रबाह के समय तक बारह अंगों की स्थापना, प्रामाण्य और स्वाध्याय की प्रक्रिया शुरू हो गई थी-इसमें भी संदेह है । क्यों कि व्यवहारसूत्र जो श्वेताम्बरके अनुसार स्वयं भद्रबाहु की रचना है उसमें जो स्वाध्याय-क्रम दिया है उसमें बारह अंगमें से कुछ ही हैं। लेकिन समय बीतने पर बारह अंग श्रुत है यह मान्यता स्थिर हो गई । क्यों कि यह बात श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों को मान्य है अतएव यह कहा जा सकता है कि सम्प्रदायभेद होने के पर्व यह व्यवस्था हो गई थी। अंगके बाद अंगबाह्य आगमका प्रश्न है। उत्तराध्ययन में ग्यारह अंग अंगबाह्य, प्रकीर्णक और दृष्टिवादका उल्लेख हैं-२८.२१.२३ । आचार्य उमास्वातिके तत्त्वार्थभाष्यमें अंगवाह्य में सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग. प्रत्याख्यान, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, ऋषि-भाषितादि-का .. १ 'मूलाचार' में बादमें काफी वृद्धि हुई है यह भी ध्यानमें रखना आवश्यक है। पूरी की पूरी कृति न एक काल की है न एक कर्ता की । किन्तु संग्रहग्रंथ है । २ बारह अंग की बौद्ध मान्यता के लिए देखें, श्री जंबूविजय जो संपादित आचारांग पृ० ४०२। वहां भी नव अंग में से बारह की कल्पना की है । नव का निर्देश स्थविरवाद में, बारह का निर्देश महायान में है। ३ व्य० उ० १० सू० २९७-३१२ । ४ सूत्रकृतांग ६६१ में ईश्वरकारणिक की चर्चा के समय-"दुवालसंग गणिपिडगं" का उल्लेख सर्व प्रथम आता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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