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________________ प्राचीन जैन आगमों में जैन दर्शन की भूमिका १०५ बढ कर संघभेद हुआ यह जो दिगम्बर परंपरा का मान्यता है'-वह विचारणीय हो जाती है । तित्थोगालीमें तो स्पष्ट लिखा है कि कुछ मुनि अकाल के कारण मगध से बाहर गये और कुछने अनशन कर लिया और जो बाहर गये वे भी यतनासे जीवनयापन करते रहे । सुकाल होने पर मगधमें जो वापस आये उनमें कोई मतभेद हुआ ऐसा कोई उल्लेख भी तित्थोगालीमें है नहीं । और दिगंबर परंपरा के लेखकों ने जो निश्चित रूप से तित्थोगाली के बाद के हैं, अकाल के कारण ही वस्त्रग्रहण होने लगा या उस अकालमें वस्त्रग्रहण की प्रथा चल पड़ी-यह को लिखा है वह तो निराधार ही प्रतीत होता है क्यों कि जहाँ खाना मिलना ही दुष्कर हो वहाँ वस्त्र सुलभ कैसे होगा? वस्त्र की प्रथा चालू हुई इसका कारण अकाल तो नहीं हो सकता । यह बात दिगंबर लेखकों के भी ध्यानमें आई है अतएवं अपनी परंपराको सिद्ध करने के लिए कथा भी गढ ली कि नग्नको देखकर श्राविका का गर्भपात हुआ और उसीके कारण आगे चलकर अर्धफालक संप्रदाय चला-ऐसी कथाओं में सांप्रदायिक तथ्य हो सकता है, इतिहासका तथ्य नहीं । और इसी प्रसंगमें दिगंबर लेखकों द्वारा यह जो कहा जाता है कि अपने शिथिलाचारके अनुपार शास्त्र की रचना की यह भी निराधार है। विद्यमान शास्त्र को देखकर यदि यह आक्षेप किया जाय तो कुछ अंशमें औचित्य होगा। किन्तु उसे भद्रबाहु के कालके साथ जोडना तो असंगत ही है । क्यों कि विद्यमान श्वेताम्बर आगम पाटलिपुत्र की वाचना के अनुसार हैं यह तो श्वेताम्बर भी नहीं मानते। दूसरी बात यह भी है कि उज्जैन वाले भद्रबाहु और मगधके भद्रबाहु चतुर्दशपूर्वी का ऐक्य भी संदिग्ध है। दो भद्रबाहु हुए ऐसा दोनो परंपरा मानती है और कथाकारोंने दोनो को कथाओं का मिश्रण कर दिया है यह प्रतीत होता है। पाटलिपुत्रकी वाचना में एकादश अंग स्थिर हुए और स्थूलभद्रने दशपूर्व की वाचना आगे बढाई -इतना स्पष्ट है, किन्तु श्वेताम्बरों के अनुसार जो दूसरी वाचना मथुरामें करनी पही-यही सिद्ध करता है कि पुनः नवनिर्माणकी आवश्यकता आ पडी थी। अत एव विद्यमान श्वेताम्बर आगमों को पाटलिपुत्रकी वाचना से भिन्न ही मानना चाहिए । अर्थात् ही पाटलिपुत्रकी वाचना से बचे हुए आगमों में ही परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन कर माथुरी वाचना तित्थोगाली केवल अंगकी वाचना का ही निर्देश करता है। वह अंगबाह्यकी वाचना के विषयमें मौन है । स्पष्ट है कि उस काल तक भगवान के उपदेश का संकलन श्रतरूपसे अंगमें ही माना गया था । इसका यह अर्थ तो नहीं कि उस काल तक अन्य ग्रन्थ नहीं बने थे । दशवकालिक शय्यंभव की रचना है । वह भद्रबाहु के पूर्वकी है और स्वयं भद्रबाहुने भी दशा-कल्प-व्यवहार की रचना की थी ऐसी श्वेताम्बर मान्यता है । किन्तु इन १ देखे जै.सा. इ. पूर्वपीठिका, संघभेद प्रकरण, पृ. ३७५ से । . २ यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि 'दुभिक्खंभत्त' का उपयोग जैन मुनि नहीं कर सकते-जाताधर्मकथागत मेघकथा सु० ३१ सुत्तागमे पृ. ९६२ । . ३ जै.सा. इ. पूर्वपीठिका पृ. ३७७ । ४ देखें, समवाय१, २११-२२७ । भगवती २५.३. ७३१ । ५.तित्थोगाली गा० ७१२-७१४ ।। ६ दशवकालिक और कल्प-व्यवहार को तो दिगंबरों ने भी अपनी अंगबाह्यसूची में स्थान दिया है ।-धवला पु.१, पू० ९६ । जयधवलो पृ० २५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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