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________________ प्राचीन जैन आगमों में जैन दर्शन की भूमिका १०३ महावीर और बुद्धने इस अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को प्रधान रूपसे अपनाया और इसी का प्रतिघोष हम उनके बाद वैदिक वाङ्मयमें भी देखते हैं । क्रमशः हिंसक यज्ञों की जो भौतिक संपत्ति के लिए कर्मकांडकी प्रवृत्ति चल रही थी उसका निराकरण हो कर आध्यात्मिक यज्ञों के अनुष्ठान की बात चल पड़ी थी यह स्पष्ट होता है । और मानव मात्र का धार्मिक अधिकार समान है - यह भावना भी बढ रही थी । इसी मानवमात्रकी एकता की भावना को भगवान महावीर ने और भी नया रूप दिया और कहा कि जीने का अधिकार केवल मानव को ही नहीं किन्तु जगत के सूक्ष्म-स्थूल सभी जीवों को है' । अतएव सामायिक व्रत की व्याप्ति केवल मानव तक नहीं किन्तु संसार के सभी जीवों तक है । अतएव किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए । उपनिषदों में ब्रह्म की कल्पना है, आत्माद्वैत को कल्पना है किन्तु अहिंसा और अपरिग्रह आदि को उतना महत्त्व नहीं जितना कि भगवान महावीर ने अपने उपदेश में दिया । उनके मत में ब्रह्म का नहीं किन्तु समका महत्त्व है। उनका तो कहना था कि परिग्रह ही हमारे लिए बन्धन है और परिग्रह के लिए ही जीव सब प्रकार के पापाचार हिंसा, चोरी, झूठ आदि का आश्रय लेता है । अतएव समका प्रचार करके परिग्रह के पाप से मुक्ति दिलाना ही जैनागमका ध्येय हो गया । सामयिक का उपदेश जानने का हमारे पास एक भगवान् महावीर का यह सम या ही साधन है और वह है जैनागम । किन्तु जैनागम क्या है, और कितने हैं और किसने कब लिखा या ग्रथित किये - इस विषय में जैनों में ही काफी मतभेद है । अतएव उस आगम के विषय में इस व्याख्यान में कुछ चर्चा करना मैने उचित माना है । इतःपूर्व आगमों के विषयों में मैंने काफी लिखा है। किन्तु यहाँ जो विचार मैं रख रहा हूँ यह भिन्न दृष्टि से है । अतएव पुराने विचारों का पुनरावर्तन मात्र नहीं है यह मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ । इतना ही नहीं किन्तु मेरे इत:पूर्व के विचारों में यहाँ संशोधन भी दिखाई देगा | वर्तमान में जैनागम और तद्विषयक मतभेद जैनागमके विषय में प्रथम यह जानना जरूरी है कि वर्तमानमें जैनागमान्तर्गत क्या समझा जाता है । जैनों के अनेक संप्रदाय हैं और इस विषयमें ऐक्य नहीं । दिगम्बरोंके मतसे तो मूल जिनागम आचारांग आदि द्वादशांग विच्छिन्न हो गये हैं और केवल दृष्टिवाद नामक बारहवें अ ंगके अंश पूर्वके आधार से रचे गये कसायपाहुड और षट्खंडागम आगमस्थानीय हैं । श्वेताम्बरों के मतसे ४५ ग्रन्थ जिनागममें शामिल । उनके मतसे आचारांग आदि ११ अंग ग्रन्थ जिस रूपमें भी खंडित रूप में संभव था सुरक्षित कर लिया गया है और अन्य ग्रन्थ जो स्थविरोंने भगवान् महावीर के उपदेशका अनुकरण करके रचे थे भी आगमान्तर्गत कालक्रम से हो गये हैं । इतना ही नहीं, इन ग्रन्थों की टीकाएँ-निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका मिलकर पंचांगी जैनागमरूप से प्रमाणभूत है । स्थानकवासी और तेरापंथी केवल ३२ ग्रन्थों को ही मात्र मूलरूपमें जैनागमान्तर्गत गिनते हैं । उनके मतसे टीकाओं का आगमरूप से प्रामाण्य नहीं । १ आचा. १३८; सूत्रकृ. ५०३-५०८ । २. सूत्रकृ. १-४, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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