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प्राचीन जन आगमों में जनदर्शनकी भूमिका
दलसुख मालवणिया
(१) जैनागम डो. उपाध्ये की स्मृतिमें यह व्याख्यानका आयोजन किया गया है और डो. उपाध्येने अपने जीवन में संस्कृत विषयमें संशोधन किया ही है। किन्तु उनका मुख्य संशोधन प्राकृतअपभ्रशको लेकर हुआ है। षट्खंडागमके सोलह भागों के संपादन में उनका पूरा सहयोग डो. हीरालालजी को मिला था और षट्खडागम दिगबर संपदायको दृष्टिसे आगमस्थानीय है और जैनों की दृष्टि से आगम हो समग्र जैन साहित्यका जा प्राकृत-संस्कृत-अपभ्रश और आधुनिक भाषाओं में लिखा गया है-स्रोत है । अतएव मैंने 'जैनागम' इस विषयमें प्रथम व्याख्यान देनेका सोचा । और आज आप सबके समक्ष उसी विषयमें अपने विचार रखने जा रहा हूँ।.यह अवसर देने के लिए मैं शिवाजी युनिवर्सिटी के कुलपति श्रीपाटिल का आभारी हूँ।
जैनागम और वेद . वेदकी सुरक्षा शब्दतः की गई है । अर्थकी परंपरा प्रायः लुप्त हो गई थी। जैनागम के विषयमें जानना जरूरी है कि परंपराके अनुसार अर्थका उपदेश अर्हत् करते हैं और उस को शब्दमें बद्ध करते हैं उनके प्रमुख गणधर । अर्थात् जैन परंपराके अनुसार प्रधानरूपसे आगम तो तीर्थकर का उपदेश है किन्तु हमें जो प्राप्त है वह तदनुसारी शब्दबद्ध आगम है। अर्थका ही महत्त्व होने से शब्द पर विशेष ध्यान दिया नहीं जा सकता था। अतएव शब्द की एकरूपता हो नहीं सकती है। तात्पर्य में भेद नहीं होना चाहिए - शब्द का रूप जो भी. हो । अतएव परिणाम यह हुआ कि जिस भाषामें भगवान द्वारा उपदिष्ट अर्थ शब्दबद्ध किया गया वह भाषा प्राकृत होने से, लोकभाषा होने से वैदिक भाषाकी तरह उसका एकरूप सतत सुरक्षित नहीं रह सकता था। अतएव परंपरा के अनुसार भगवान महावीरका उपदेश अर्धमागधी भाषामें होता था ऐसा मान कर भी श्वेताम्बर जैनों के आगम अर्धमागधी में सुरक्षित न रहकर महाराष्ट्राप्राकृतप्रधान हो गये हैं। और प्राकृतभाषा की प्रकृतिके अनुसार शब्दों के रूपों में भी संस्कृत के समान एकरूपता देखो नहीं जाती । दिगबरों के मान्य सिद्धान्त भी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनीप्रधान हो गये हैं । ऐसा होते हुए भी प्राचीन आगमों की अर्थपरंपरा या तात्पर्य परंपरा एक ही थी यह भी निश्चितरूपसे कहा जा सकता है । बादके कालमें सांप्रदायिक रूप दिया जाने लगा तब अर्थपरंपरामें भी भेद दृष्टिगत होने लगा।
___ आगमो की सुरक्षामें एक दूसरी भी बाघा थी। ब्राह्मणोंमें वेद की सुरक्षा पितापुत्र की परंपरामें होती थी और जैनों में गुरुशिष्य परंपरामें । यह आवश्यक नहीं कि पिताको जैसा योग्य पुत्र मिलता है वैसा ही योग्य शिष्य गुरुको मिले । ऐसी स्थिते में आगमकी सुरक्षा
१ डो. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये की स्मृतिमें शिवाजी युनिवर्सिटी में ता. ७
१०-७७ को दिया गया प्रथम व्याख्यान ।
२ आव. नि. १९२; आगमयुगका जैनदर्शन, पृ. ७ । मुनि श्रीजम्बूविजयजी की सूत्रकृतांग की प्रस्तावना पृ० २८ से 'वाचना' प्रकरण देखें।
३ समवाय-३४, भगवई में उल्लेख है कि देवों की भाषा अर्धमागधी है ५.४.१९० ४ देखें, धवलाटीका । 'संयत' पदको लेकर जो विवाद हुआ वह सुप्रसिद्ध हैं। .
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