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________________ जैनदर्शन में 'तर्कप्रमाण' १५३ को जानने की आकांक्षा के रूप में गुण-दोष-विचारात्मक ज्ञान व्यापार ही हैं, अतः उसका पर्याय तर्क या ऊह हो सकता है। फिर भी यहां तर्क को ईहासे पृथक् एक स्वतंत्र प्रमाण नहीं माना गया है। साथ ही 'तर्क प्रराण' में 'तर्क' शब्दका जो अर्थ गृहोत है वह भी यह। अनुपस्थित ही है । इससे प्रमाण चर्चा के प्रसंग में तर्क शब्द का जो अर्थ-विकास हुआ वह एक परवर्ती घटना ही सिद्ध होती है । फिर भी ये सब बातें एक ऐसी आधारभूमि तो अवश्य प्रस्तुत कर रही थी, जिसके सहारे अकलंक के द्वारा ७वीं शती में तर्क को प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सका। वस्तुतः तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण मानना इबलिए आवश्यक हो गया कि उसके विना व्याप्ति ग्रहण की समस्या का सही हल प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं था, क्योंकि प्रत्यक्ष चाहे वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष हो या अतीन्द्रिय मानसप्रत्यक्ष हो, त्रैकालिक एवं सार्वलौकिक व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता था दूसरों ओर अनुमान तो स्वयं पाति पर निर्भर था, अतः प्रत्यक्ष और अनुमान के बीच एक सेतु की आवश्यता थी जिसे तर्क को प्रमाण मानकर पूरा किया गया । 'तर्क' को प्रमाण के पद पर प्रतिठित करने के साथ हो अकलंक के सामने दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह थी कि उसे साध्यावहारिक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में से किस प्रमाण के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जावे ? चूंकि तत्त्वार्थसूत्र भाग्य में ईहा का अन्तर्भाव सांग्यावहारिक प्रत्यक्ष में होता था अतः सूत्रकार के मत की रक्षा करने हेतु उसका समावेश सांध्यावहारिक प्रत्यक्ष में ही होना था किन्तु प्रत्यक्ष का ही एक मेद होने की स्थिति में तर्क व्याति का ग्राहक नहीं बन सकता था इस हेतु उसके बौद्धिक, बिमं शस्मिक एवं सामान्यज्ञानात्मक स्वरूप पर बल देना भी जरूरी था और यह तभी सम्भव था जबकि उसे शब्द संसर्ग से युक्त एवं ऐन्द्रिक तथा मानसिक प्रत्यक्ष से भिन्न स्वतंत्र प्रमाण माना जाये । किन्तु ऐसी स्थिति में उसे परोक्ष प्रमाण में वर्गीकृत करना जरूरी था । अकलंक ने दोनों ही दृष्टिकोणों को रक्षा की, रक्षा हेतु यह माना कि 'तर्क' आदि जब शब्द संसर्ग से रहित हो तो उनका समावेश सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में और शब्द संसर्ग से युक्त हो तो उनका समा वेश परोक्ष श्रुतज्ञान में करना चाहिए। लेकिन परम्परा की रक्षा करने का उनका यह प्रयास सफल नहीं हुआ और उत्तरकालीन अनन्तवीर्य, विद्यानन्द आदि सभी जैन तार्किकों ने तर्क का समा वेश परोक्ष प्रमाण में ही किया। जैन तार्किकों का प्रमाणों का निम्न सर्वमान्य वर्गीकरण तर्क का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण में ही करता है प्रमाण 1 प्रत्यक्ष अतीन्द्रियआत्मिक प्रत्यक्ष सांभ्यावहारिक प्रत्यक्ष अवधि Jain Education International मनः केवल पर्याय अवग्रह 1 स्मृति इन्द्रिय अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष |___ (मानसिक प्रत्यक्ष ) V ईहा प्रत्यभिज्ञान 1 अवाय तर्क For Personal & Private Use Only परोक्ष धारणा अनुमान आगम www.jainelibrary.org.
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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