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अधिक नहीं हैं किन्तु विषय एवं प्रसंग के अनुरूप उपयुक्त पदावली प्रयुक्त करने में कवि की क्षमता सन्देह से परे है। उसका व्याकरणज्ञान असन्दिग्ध है। विद्वत्ता प्रदर्शित करने का कवि का आग्रह नहीं किन्तु लुङ् तथा लिट्, विशेषकर कर्मवाच्य में, के प्रति उसका पक्षपात स्पष्ट है । काव्य में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त किए गये हैं जो नितान्त अप्रचलित हैं। कतिपय सामान्य शब्दों का प्रयोग असाधारण अर्थ में हुआ है " । कुमारसम्भव सुमधुर तथा भावपूर्ण सूक्तियों का विशाल कोश है। अवश्य ही इनमें से कुछ लोक में प्रचलित रही होंगी ४ ! ... अलंकारों की सुरुचिपूर्ण योजना काव्य शैली को समृद्ध बनाती है तथा उसके सौन्दर्य में वृद्धि करती है । हेमचन्द्र, वाग्भट आदि जैनाचार्यों के विधान का उल्लंघन करके काव्य में चित्रबन्ध का समावेश न करना जयशेखर की भाषात्मक सुरुचि का प्रमाण है। कुमारसम्भव में अलंकार इस सहजता से आए हैं कि उनसे काव्य सौन्दर्य स्वतः प्रस्फुटित होता जाता है तथा भाव प्रकाशन को समर्थता तथा सम्पन्नता मिलती है । जयशेखर के यमक और श्लेष में . भी दरडता नहीं है। दसवें सर्ग में सुमंगला की सखियों के नृत्य तथा विभिन्न दार्शनिक मती के रिलष्ट वर्णन में श्लेष ने काव्यत्व को अवश्य दबोच लिया है। जयशेखर ने भावोदबोध के लिये प्रायः सभी मुख्य अलंकारों का प्रयोग किया है । प्रलेष और अर्थान्तरन्यास उसके प्रिय अलंकार हैं।
छन्दों की योजना में कवि ने शास्त्रीय विधान का पालन किया है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द प्रयुक्त हुआ है जो सर्गान्त में बदल नाता है । काव्य में उपजाति का प्राधान्य है। सब मिलाकर कुमारसम्भव में अठारह छन्दों का प्रयोग किया गया है। १२ अधरैधरैबभूवे ।२.१७, पराभिराभिनवरं जिजीवे-३.५४, विबुधै फलं जगे-४.२५, सुखं सिषेवे किमु रत्नराशिना-९.७१, कैश्चिद् जगदे तदेति-११.५,दृगध्वनावामि -२.६,महीमहीनत्वमुपासिष्ठषीष्ट ताम्-२.६७, आलम्बि रोलम्बगणैर्विलम्बः ३.४५, विभूषणं तैस्तदमानि दूषणम्-४.३०, युवाक्षिभृगैस्तदरामि-६.२१, हारि मा तदिदमद्य निद्रया-१०.५२, अवेदि नेदीयसि देवराजे ११.५९, १३. द्रोणी-नौका, अनालम्-सम्यक्, वज्रमुखः-गरुड, पुलाकी-वृक्ष, महाबलम्-वायु, तृणध्वज:बांस, वृषः-पुण्य, विज्जुल-कलुषित, खण्डम्-वन, उद्वेग-सुपारी, स्मरध्वज-वादित्र, संचरशरीर, प्रान्तर-मार्ग, आदीनव:-दोष, कुलम्-आवास, भौती-रात्रि, विगेक:-किरण, अवग्रह:विघ्न, अन्तर्गडु-निरर्थक, निन्द्यदिक्-दक्षिण दिशा, प्रशलतु-हेमन्त, चूणि-अन्न, तोया - तौलिया, पिण्डोल-झूठन, निविरीस-निविड, रजनी-हरिद्रा, ताविपः-स्वर्ग, स्तानवम्-गतिलाघा, प्रमद्वरा-प्रमादिनी, महानादः-सिंह, मार्जिता-रस,भोजन, शुचिः-सूर्य, अंहति-दान! १४ कतिपय सूक्तियाँ-१. यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टित:-२.९.,२. त्रपा हि तातोनतया सुसूनुषु-२.६३, ३. स्याद् यत्र शक्तेरवकाशनाशः श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम-३.१५, ४. न कोऽथवा स्वेऽवसरे प्रभूयते-४.६९, ५. रागमेधयति रागिषु सर्वम्-५.१६, .६ कालेन पिना क्व शक्तिः-६.५,७. शक्ती सहना हि सन्तः-६.२९, ८. जात्यरत्नपरीक्षायां बालाः किमधिकारिणः-७. ६८, ९. अतित्वरी विनकरीष्टसिद्धेः-८.६२, १०. अहो कत्रं हृदयानुयायि कलानिधीनामपि भाग्यलभ्यम् ६.९. ११. अहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम्.११.११.
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