SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यव्रते हुआ होगा । इन दो सीमा-रेखाओं का मध्यवर्ती भाग, सम्वत् १४६२-१४८२ (सन् १४०५-. १४२५) कुमारसम्भव का रचनाकाल है । कथानक कुमारसम्भव के. ग्यारह सर्गों में आदि जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के विवाह तथा उनके पुत्र-जन्म का वर्णन करना कवि को अमीष्ट है । काव्य का आरम्भ अयोध्या के वर्णन से होता है, जिसका निर्माण धनपति कुबेर ने अपनी प्रिय नगरी अलका की सहचरी के रूप में किया था। इस नगरी के निवेश से पूर्व, जब यह देश इक्ष्वाकुभूमि के नाम से ख्यात था, आदिदेव ऋषम युग्मिपति नाभि के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे। सर्ग के शेषांश में उनके शैशव, यौवन, रूप-सम्पदा तथा विभूति का चारु चित्रण है। देवगायक तुम्बरु तथा नारद से यह जानकर कि ऋषम अभी कुमार हैं, सुरपति इन्द्र उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने के लिये तुरन्त प्रस्थान करते हैं । तृतीय सर्ग में इन्द्र नाना युक्तियां देकर ऋषभदेव को उनकी सगी बहनों-सुमंगला तथा सुनन्दा-से विवाह करने को प्रेरित करते हैं। उनके मौन को स्वीकृति का द्योतक मानकर इन्द्र ने तत्काल देवताओं को विवाह की तैय्यारी करने का आदेश दिया । इसी सर्ग में सुमंगला तथा सुनन्दा के विवाहपूर्व अलंकरण का विस्तृत वर्णन है। पाणिग्रहणोत्सव में भाग लेने के लिये समूचा देवमण्डल भूमि पर उतर आया, मानो वर्ग ही धरा का अतिथि बन गया होगा । स्नान-सज्जा के उपरान्त आदिदेव जंगम प्रासाद तुल्य ऐरावत पर बैठ कर वधूगृह को प्रस्थान करते हैं। चौथे तथा पांचवे सर्ग में तत्कालीन विवाह-परम्पराओं का सजीव चित्रण है। पाणिग्रहण सम्पन्न होने पर ऋषम विजयी सम्राट की भाँति घर लौट आते हैं । यहीं दस पद्यों में उन्हें देखने को लालायित पुरसुन्दरियों के सम्भ्रम का रोचक वर्णन है । छठा सर्ग रात्रि, चन्द्रोदय, षड्ऋतु आदि वर्णनात्मक प्रसंगों से भरपूर है । ऋषभदेव नवोढा वधुओं के साथ शयनगृह में प्रविष्ट हए जैसे तत्त्वान्वेषी मति-स्मृति के साथ शास्त्र में प्रवेश करता है । इसी सर्ग के अन्त में सुमंगला के गर्भाधान का उल्लेख है। सातवें सर्ग में सुमंगला को चौदह स्वप्न दिखाई देते हैं । वह उनका - फल जानने के लिये पति के वासगृह में जाती है । आठवें सर्ग में ऋषम तथा सुमंगला का संवाद है। सुमंगला के अपने आगमन का कारण बतलाने पर ऋषभदेव का मन-प्रतिहारी समस्त स्वप्नों को बुद्धिबाहु से पकड़ कर विचार-सभा में ले गया और विचार-पयोधि का मन्थन कर उन्हें फल रूपी मोती समर्पित किया । नवे सर्ग में ऋषम स्वप्नों का फल बतलाते है। यह जानकर कि इन स्वप्नों के दर्शन से मुझे चौदह विद्याओं से सम्पन्न चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होगी, सुमंगला आनन्दविभोर हो जाती है । दसवें सर्ग में वह अपने वासगृह में आती है तथा सखियों को समूचे वृत्तान्त से अवगत करती है । ग्यारहवें सर्ग में इन्द्र सुमंगला के भाग्य की सराहना करता है और उसे बताता है कि अवधि पूर्ण होने पर तुम्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी। तुम्हारे पति का वचन मिथ्या नहीं हो सकता । तुम्हारे पुत्र के नाम से (भरत) से यह भूमि 'भारत' तथा वाणी 'भारती' कहलाएगी। मध्याह्न-वर्णन के साथ काव्य सहसा समाप्त हो जाता है। जयशेखर को प्राप्त कालिदास का दाय : कालिदास के महाकाव्यों तथा जैन कुमारसम्भव के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि मैन कवि की कविता, कालिदास के काव्यों विशेषतः कुमारसम्भव से बहुत प्रभावित है। कालि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy