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________________ जैन तीर्थंकरों की द्वितीर्थी मूर्तियों का प्रतिमा-निरूपण मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी द्वितीर्थी जिन (या तीर्थंकर ) मूर्तियों से हमारा भाशय ऐसी मूर्तियों से है, जिनमें दो तीर्थकरों को एक साथ आमूर्तित किया गया है। द्वितीर्थी जिन मूतियों के सम्बन्ध में हमें जैन ग्रन्थों में किसी प्रकार के उल्लेख नहीं प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि द्वितीर्थी बिन मूर्तियां परम्परा द्वारा निर्देशित न होकर कलाकारों की मौलिक देन रही हैं । द्वितीर्थी जिन मूर्तियों के उत्कीर्णन की परम्परा नवीं शती से प्रारम्भ होकर निरन्तर बारहवीं शती तक लोकप्रिय रही है । द्वितीर्थी मूर्तियों की लोकप्रियता दिगम्बर स्थलों तक ही सीमित रही है । दसवां से बारहवीं शती के मध्य की सर्वाधिक द्वितीर्थी मूर्तियाँ खजुराहो (छतरपुर,मध्यप्रदेश ) और देवगढ़ (ललितपुर, उत्तरप्रदेश) से प्राप्त होती हैं। कुछ मूर्तियाँ उड़ीसा, विहार और बंगाल से भी प्राप्त होती हैं। द्वितीर्थी जिन मूर्तियों को लाक्षणिक विशेषताओं के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग की मूर्तियों में एक ही तीर्थंकर की दो आकृतियाँ उत्कीर्ण है। : इस वर्ग में लटकती केशावली से युक्त ऋषभनाथ (प्रथम जिन) और पांच या सात सर्पफणों के छत्र से युक्त सुपार्श्वनाथ (७ वे जिन ) एवं पार्श्वनाथ (२३ वें जिन) की द्वितीर्थी मूर्तियां आती हैं। दसरे वर्ग की मूर्तियों में जिनों की आकृतियां लाँछनों से रहित हैं, और उनकी पहचान किसी प्रकार संभव नहीं है। स्पष्ट है कि दूसरे वर्गों की द्वितीर्थी मर्तियों का उद्देश्य एक ही तीर्थकर की दो आकृतियों का उत्कीर्णन रहा है। तीसरे वर्ग की मूर्तियों में भिन्न लाँछनों से युक्त दो अलग-२ तीर्थकरों को आमूर्तित किया गया है, जिसका उद्देश्य दो भिन्न तीर्थकरों को समान प्रतिष्ठा प्रदान करना रहा हो सकता है। सभी वर्गों की द्वितीर्थी मूर्तियों में दो तीर्थकरों को निर्वस्त्र और कायोत्सर्गमुद्रा में धर्मचक्र से युक्त सिंहासन, या साधारण पीठिका पर निरूपित किया गया है। प्रत्येक तीर्थकर सामान्यतः दो पार्श्ववर्ती चामरधर सेवकों, उपासकों, भामण्डल और शीर्षभाग में उड्डीयमान मालाघरों,गजों, त्रिछत्र, अशोक वृक्ष एवं दुन्दुभिवादक की आकृतियों से युक्त हैं । कुछ उदाहरणों में दोनों तीर्थंकरों के लिए चार के स्थान पर केवल तीन ही चामरधर एवं उड्डीयमान मालाधर उत्कीर्ण हैं । ऐसी मूर्तियों में चामरधरों एवं उड्डीयमान मालाधरों की दो आकृतियाँ द्वितीर्थी मूर्ति के छोरों पर और एक आकृति दोनों जिनों के मध्य में उत्कीर्ण हैं । मध्य की मालाधर एवं चामरधर आकृतियाँ दोनों जिनों के लिए प्रयुक्त हैं । दसवीं शती के अन्त तक द्वितीर्थी मर्तियों की पीठिका पर तीर्थंकरों के स्वतन्त्र लांछनों के उत्कीर्णन की परम्परा भी प्रारम्भ हो गई थी । ग्यारहवीं शती तक जिनों के साथ यक्ष-यक्षी युगलों को भी संश्लिष्ट किया जाने लगा था । पहले और दूसरे वर्गों की द्वितीथीं मूर्तियों में दोनों जिनों से सम्बद्ध यक्ष-यक्षी युगल समान लाक्षणिक विशेषताओं वाले हैं। जब कि तीसरे वर्ग की मर्तियों में दोनों जिनौं के साथ स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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