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सागरमल जैन
३ अहकालम्मि संपत्ते आघायाय समुस्सयं । सकाममरणं मरई तिहमन्नयरं मुणी ॥
-उत्तराध्ययन ५/३२ ४ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः संल्लेखनामार्याः ।।
-रत्नकरण्ड श्रावकाचार अध्याय ५ ५ देखिये - अंतकृतदशांग सूत्र के अर्जुनमाली के अध्याय में सुदर्शन सेठ के द्वारा किया
गया सागारी संथारा ६ देखिये - अंतकृतदशांग सूत्र वर्ग ८ अध्याय १ ७ प्रतिक्रमण सूत्र सल्लेखना का पाठ ८ संयुत्त निकाय २१।२।४।५
संयुत्त निकाय ३४।२।४।४ १० अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात् ।
उद्वघ्नीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते पूयशोणितसम्पूर्ण अन्धे तमसि मज्जति ।
षष्टि वर्षसहस्राणि नरकं प्रतिपद्यते ॥ - पराशरस्मृति ४।१।२ ११ महाभारत आदि पर्व १७९।२० १२ विशेष जानकारी के लिये देखिये - धर्मशास्त्र का इतिहास पृ ४८८
- अपराक वृ० ५३६ १३ धर्मशास्त्र का इतिहास पृ. ४८७ १४ धर्मशास्त्र का इतिहास पृ. ४८८ १५ रत्नकरण्डश्रावकाचार २२ १६ देखिये - (अ) दर्शन और चिन्तन -पं. सुखलालजी पृ. ५३६ (ब) नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् - मनु
(उद्धृत परमसखा मृत्यु पृ. २४)
काका कालेलकर (स) भवतृष्णा (जीने को तीव्र इच्छा) और विभवतृष्णा (मरने की तीव्र इच्छा)
बुद्ध ने साधक को इन दोनों से बचने का निर्देश किया है।
(द) जीवियं नाभिकंखेज्जा मरणं नावि पत्थए । १७ मरणपडियार भूया एसा एवं च ण मरणनिमित्ता जह गंडछेअकिरिआ णो आयविराहणारूपा ।
- उद्धृत दर्शन और चिन्तन पृ.५३६ १८ श्री अमर भारती मार्च १९६५ पृ. २६ १९ संजमहेउं देहो धारिज्जइ सो कओ उ तदमावे । संजम-फाइनिमित्तं देह परिपालणा इा ॥
-- ओधनियुक्ति ४७