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शिशुपालवध में सन्धियोजना
जहाँ पूर्वसन्धियों में कुछ कुछ प्रकट हुए फलप्रधान उपाय का हास और अन्वेषण से युक्त बार बार विकास हो, उसे गर्भसन्धि कहते हैं। शिशु० में तृतीय से पञ्चदश सर्ग तक यह सन्धि हैं। श्रीकृष्ण के इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान इन्द्रप्रस्थ नगरी में प्रवेश तथा युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ-सम्पादन में तो फलप्रधान उपायका विकास ही होता है। श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को देखकर शिशुपाल का क्रद्ध होना श्रीकृष्ण के प्रति कटक्तियों का प्रयोग करना और युद्धार्थ सेना तैयार करना मादि में उस फलप्रधान उपाय का हास दृष्टिगत होता है किन्तु शिशुपालपक्षीय राजामों के पहले से होने वाले अपशकुनों द्वारा पुन: उसका अन्वेषण होता है। इस प्रकार जहाँ फलप्रधान उपाय का हास एवं अन्वेषण से युक्त बार बार विकाश हुआ है। अतः यहाँ गर्भसन्धि है विमर्श
जहाँ बीजार्थ गर्भसन्धि की अपेक्षा अधिक विकसित हो किन्तु क्रोधादि के कारण विध्नयुक्त हो उसे विमर्श सन्धि कहते है । शिशु० में श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाठ का वध किया जाना अत्यन्त सम्भव हैं किन्तु शिशुपाल दूत के वचनों से श्रीकृष्णपक्षीय लोगों का क्षुब्ध होना, शिशुपाल का विपुल सेना तैयार करना और दोनों सेनाओं में तुमुल युद्ध कुछ सीमा तक विध्न सदृश भी हैं। अतः पञ्चदश सर्ग के अन्तिम भाग से लेकर विंश सर्ग के लगभग अन्त तक विमर्श सन्धि है। निर्वहण
बीज से युक्त मुखादि सन्धियों में बिखरे हुए अर्थों का जहाँ एक प्रधान प्रयोजन में यथावत् समन्वय साधित किया जाय, उसे 'उपसति' या 'निर्वहण सन्धि कहते हैं। अन्त में श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध निर्वहण सन्धि है यह काव्य के विंश सर्ग के अन्तिम भाग में है।
इस प्रकार महाकवि माघ ने अपने शिशु० काव्य में सभी अर्थप्रकृतियों, कार्यावस्थाओं एवं सन्धियों का सुन्दर सन्निवेश किया है। 1. दशरूपक-गमस्तु दृष्टनष्टस्य वीस्या-वेषण मुहुः ।
द्वादशाः पताका स्यान्न वा स्यात् प्राप्तिसम्भवः ॥१६३६ २. बशरूपक-क्रोधेनावमशेयत्र व्यसनाद्वा विलोमनात् ।
गर्मनिभिन्नबीजार्थः सोऽवमर्श इति स्मृतः १४३ ३. दशरूपक बीजवन्तो मुखायर्था विप्रकीर्णा यथायथम् ।
ऐकाध्यमुपनीयन्ते यत्र निर्वहण हि तत् ॥११४८-४९