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समराइच्चकहा में वस्त्र एवं आभूषणों के उल्लेख
शिनकू यादव
संस्कृति के अन्तर्गत भोजन पान के साथ-साथ वन एवं आभूपण का भी विशेष महत्त्व है। किसी भी देश के लोगों की सांस्कृतिक स्थिति का पता उसमें रहने वाले लोगों की वेशभूषा से भी आंका जा सकता है। मोहन जो दड़ो और हड़पा की सभ्यता में तो बहुधा लोग नंगे ही रहा करते थे और यदि कुछ लोग कपड़े पहनते भी थे तो यह लंगोटी या छोटी धोती के रूप में । कभी-कभी लोग चादर भी ओद लेते थे और अपने बाल फीते से बाध लेते थे। वैदिक काल से लेकर सातवीं सदी तक सिले हुए कपडों एवं आभूषणों का उल्लेख साहित्य में बराबर मिलता है और उनका अंकन भी बहुधा चित्रों में हुआ है, किन्तु बहुत प्राचीन काल से गन्धार
और पंजाब में लोग ठंडक के कारण सिले वस्त्र पहनते थे और इन सिले हुए वस्त्रों में यूनानी, ईरानी और मध्येशिया का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। इन प्रान्तों का उपरोक्त जातियों से अति प्राचीन काल से बहुत घनिष्ट सम्बन्ध था। परिणामतः दोनों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान का होना स्वाभाविक था।
समराइच्चकहा के वर्णन से पता चलता है कि जहां धनी सम्पन्न तथा राजघरानों के लोग मूल्यवान एवं सुन्दर वस्त्रों को धारण करते थे वहीं गरीब लोग मलिन तथा फटे पुराने वस्त्रों को धारण कर किसी तरह अपना जीवन निर्वाह करते थे।
वस्त्र के प्रकार समराइञ्चकहा में निम्नलिखित प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है।
दुकूल समराइचकहा में इसका उल्लेख कई बार आया है। यह एक श्वेत रंग का सुन्दर एवं कीमती वस्त्र था, इसका प्रयोग अधिकतर धनी सम्पन्न तथा राजा-महाराजा ही करते थे। दुकूल का उल्लेख महाभारत में भी आया है। जिसे डा. मोतीचन्दने रोमन लेखकों का वाहसास माना है। आगे उन्हीं के अनुसार यह दुकूल वृक्ष की छाल के रेशो से बनता था। बंगाल का बना दुकूल सफेद और मुलायम होता था। पौन्ड्र का नीला और चिकना तथा सुवर्णकुड्रया का दुकूल ललाई लिये होता था। इसी प्रकार मणिस्निग्धोदकवान् दुकूल घुटे हुए सूत के बनते थे। आचारांगसूत्रीका में उल्लिखित है कि दुकूल बंगाल में पैदा होने वाले एक विशेष प्रकार की रूई से बनने वाला वस्त्र था। निशीथचूणी में दुकूल को दुकूल नामक वृक्ष की छाल को कूट कर