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श्रीनेमिजिनचरितम् नाटकम् । सत्प्राकारविहारतोरणवती सच्चित्रशालालया,
सौधोत्सङ्गगतध्वजाञ्चलकरैर्या नृत्यतीवोन्मदा । वापीकूपतडागकौतुकवनैर्या सर्वत: सेविता,
सेयं राजति राजरम्य सकैर्धन्या पुर) द्वारिका ॥१॥ योगींद्र जे गर्भ लगइ प्रधान, विज्ञान-ज्ञान-तण निधान । अध्यात्मनइ रंगि सदैव जागइ, बोवाहनो वान न चित्ति लागः ॥ लहलहंति गिरिनारि तरूयड़ा, महमहति सुगंध मस्यडा । गहगहंति तरुरासि रूयडा, वनि वसंतनणा गुण रूयडा ॥३॥ पनि पनि संचरतइ भमरि, दीठो बहुवणगइ ।। तो इ चित्ति न वीसरइ, न वि देखइ जाइ ॥४॥ हावभाव करती सवि आवइ, पुष्प-आभरण अंगि चडावइ । ओघसई रसि हसई दंताली, नेमि पाखलि फिरी हरिनासी ।।५।। मूंकी मूंकी मनना अति आमला, स्वामि मुंदर मुजाण मामाला । रूपयौवन सुलावन चगी, आणि एक रमणो नाअंगी ॥६॥ वीनवई हेरखि रुक्मिणि रार्ण, देव देउर करु मुझ वाणी । भामणइ तुझ तणी प्रभु गेलो, आणि नारि जगमोहणदेलि १७ ॥ सरस्वती डाहिडि मूर्तिवंती, सौभाग्यलक्ष्मी सम भाग्यवनी । राजीमती नारि खरी मुजाणि, नवेलडी मोहणवेलि जाणि ॥ ८॥ पोलिई रच्या ओलि सुंद[र] थंभ, तिहां निवेश्या मणिपूर्ण कुंभ । तु नित्य नइ तोरण बारि बारि, हुई उत्सव द्वारमती मारि ॥५॥ कामिनी मुखसरोवर सोहई, कांति नीरलहरी मन मोहई । नेत्रपद्म भमुहीवन दीपइ, भालि पालि त्रस जोइ न छोपइ ॥१०॥ गुरुड चंच सम सोहइ नासा, चंद्रमंडल कपोलविलासा । स्वर्गतउ पुर टलइ जिणि जोती, दंत दीपई जिस्यां मुम्ब मोती ॥११॥ लंकाउली ऊयरदेसि भागि, जिसी बडी मंगि अनंगरागि। श्रृंगार भंगार रसावतार, वक्षोजवक्षस्थल तारहार ।।१२।।