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________________ T (२) यदि ऐसा अर्थ किया जायगा तो ' प्रयान्त में ईश्वर व जीवो के धर्माधर्म को एक साथ विपाकोन्मुख करना है' ऐसी जो मान्यता उत्तरकालीन न्यायवैशेषिकों में प्रचलित है उसका क्या होगा ? इस सान्यता को वत्स्यायन स्वीकार करते हो ऐसा भाष्य में कहीं भी मालूम नहीं पडना । तदुपरान्त भाष्यकर मर्ग प्रलय की मान्यता को स्वीकार ही नहीं करते हो ऐसा ही संभव विशेष है। नियायिक सर्ग को स्वीकार ही नहीं करते। वे संसार को अनादि-अनन्त मानते है । यह बात वार्तिककार उद्योतकर ने एक स्थान पर कही है। अर्थात संगोपन केल सगरम्भ परमाणु के आद्यकर्म के लिए और प्रत्यान में सजीव के कम की विपाकोन्मुख करने के लिए नैयायिकों को ईश्वर की आवश्यकता नहीं । (३) यहां ईश्वर यह जीवन्मुक्त ही है और जीवन्मुक्त आना अपने सचिन कर्मो को अन्तिम जन्मने भोग लेने के लिए निर्माणकार्य को उत्पन्न करना है ऐसा फलित किया है तो प्रश्न हैं- (a) वात्स्यायन जीवन्मुक्त को मानते है ? (b) उसे अन्तिम जन्म में संचित कर्मों को भोग लेना चाहिए ऐसा वे मानते है ? (c) के निर्माण. काय की कल्पना को मानते हैं ? इनका उत्तर है वात्स्यायन जीवन्मुक्त की मान्यता का स्वीकार करते हैं। उनके अपने है बहिश्च विविचितो विहरन्मुक्त इत्युच्यते । न्यायभा. ४.२.२ । जीवन्मुक्त को अन्तिम जन्म में अपने सभी पूर्वकृत कर्मों का भाग देना चाहिए ऐसा वात्स्यायन स्वीकार करते है । उनके अपने शब्द है ि हयन्तं जन्मनि विपच्यन्त इति । न्यायमा ४१.६५ । वात्स्यायन निर्माणकाय की कल्पना का स्वीकार करते हैं। इनके अपने हैं—योगी खलु धौ प्रादुर्भूतायां विकरणधर्ना निर्माय मन्द्रियाणि शरीरान्नराि ज्ञेयान्युपलभते । ३.२,१९ । जयन्त की न्यायमञ्जरी में निर्माणकाय की प्रक्रिया का उल्लेग्य है । इस दर्भ में यह ध्यान में रखना होगा कि वात्स्यायन स्वयं योग की साधना प्रक्रिया से पूर्ण परिचित हैं और तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के लिए योग के सभी अंगो का अभ्यास आवश्यक मानते हैं । (४) वात्स्यायन ने ईश्वर को सर्वज्ञाता के रूप में स्वीकार किया है । क्या जीवन्मुक्त को वात्स्यायन सर्वज्ञ मानते हैं ? C सभी द्रव्यों का उसकी सभी पर्यायों (अवस्थाओं) के साथ ज्ञान रखनेवान्य ' ऐसा सर्वज्ञ का अर्थ सांख्ययोगदर्शन को अभिप्रते है । सांख्ययोग का जीवन्मुन अनन्तज्ञान ( = तारकज्ञान - विशोका सिद्धि) रखता है और सभी यों को जानता है। वात्स्यायन को 'सर्वज्ञ' का ऐसा अर्थ यहां अभिमत है या नहीं यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकना । किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि वात्स्यायन संदर्भ के अनुसार 'सर्वज्ञ' का अलग अलग अर्थ करते हैं । इन्द्रिय अपने अपने नियत विषय को ग्रहण करती है जब कि आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन पांचों को म्हण
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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