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प्रास्ताविक अपभ्रंशोचर कालकी पक विरल रासकृति जो ताडपत्रीय हस्तपत्र से यहा पर प्रस्तुत सागरचन्द रचित 'सीयाहरण-रासु' का सम्पादन किया गया है उसका वर्णन इस प्रकार है
स्थान एव स्वरूप ला० १० विद्यामदिर अमदाबाद उसमबाई भडार न० १७७४।३ परिमाण आदि पत्र संख्या १६ माप ३९४५ पक्ति संख्या ५ भक्षरसंख्या ६६ छन्द संख्या ८.
सागरचन्द ने अपने को सरवाल गच्छ के 'वधरि' (वर्षमानसूरि ) का शिष्य बताया है। सरवाल गच्छ की उत्पत्ति विक्रमीय १२वीं शताब्दि के आरम्म में राजस्थान के श्रीमाल या भिणमाल नगर से मानी गई है । उस गच्छ के भाचार्यों के इसवी १२ वी-१३वी शताब्दी के उल्लेख प्राप्त है। मुनि कान्तिसागर के जैम धातुप्रतिमालेख (प्रथम भाग १९५०) में वि सं १२८६ के एक प्रतिमा लेखमें सरवाल गच्छ के वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूर्ति का निर्देश मिलता है (पृ. ३) वही हमारे सागरचन्द के गुरु थे या उससे भिन यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमानHि का समकालीन पण्डित 'सागरच- ईसवी बारहवीं शताब्दी का गण्य मान्य विद्वान होनेका निर्देश मोहनलाल दलीचद देशाई के जैम साहित्य के सक्षिप्त इतिहास' में पाया जाता है (पृ २२४ , २५४)। यह सागरचन्द्र गुजरात के चौलश्य नृपति सिद्धराज के मन्त्री उदयन का पुत्र था। यह सीयाहरण रासु के कर्ता से भिन्न ज्ञाप्त होता है। भाषा दृष्टि से हम देखें तो 'सीयाहरण रासु' की भाषा ईसवी १२ वी १३ वी शताब्दी की जाम पड़ती है। यह भाषा उस समय की है जब साहित्य भाषा में अपभ्रश से प्राचीन गुजराती में सेकमण हो रहा था । इन सब के माघार पर हम 'सीयाहरण रासु' का रचना काल १२ वी १३ वीं शताब्दी के बीच रख सकते हैं। इस समय में रची हुई कृतियाँ बहुत कम पाई गई है। रामायण-विषयक प्राचीन रास कृतियाँ भी अत्यन्त विरल हैं। इस दृष्टि से 'सीयाहरण-रासु' का महत्व स्वयप्रतीत है। इसकी जोक की कृति 'सीयादेषि-रासु' भी इसके पश्चात् प्रकाशित की आयगी।
सम्पादक