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________________ प्रास्ताविक प्रस्तुत अजनासुन्दरीकथानक की केवल एक ही प्रप्ति उपलब्ध है और यह जमलमेर के श्री जिनभवमूरि जैन ज्ञान भण्डारान्तर्गत वेगडाच्छीय जैन भणार की है। भण्डार में इस प्रति का क्रमाक १२७८ है [देखो जेसलमेह दुर्गस्थ युगप्रधान भाचार्य श्री जिमभरि सम्थापित ताडपत्रीय जैन नाम भण्डार सूचिपत्र पृ०२८१] । ५०४ आर्या छद में रचित इस रघु कथामक की प्रति के कुल २३ पत्रों में से १,४५, ११-१२, और १४-०२ पत्र अप्राप्य होने से इसके केवल ९ पत्र ही विद्यमान है। इस प्रति की लबाई चौडाई १९४३ हब की है। स्थिति मच्छी एव लिपि सुपाच्य है। इस कथामक की रचना वि स १४.७ के चैत्र शुक्ला १३ के दिन जेसलमेर में श्री गुणसमृद्धि महत्तरा ने की है। रचना सवत व स्थल का उल्लेख गा ५.१ मे है । और रचना का नाम मत में भाई हुई गद्य पुष्पिका में है। उपरोक्त कथानक का माधे से भी कम हिस्सा उपलब्ध होने पर भी इसकी रचयित्री एक निन्धिनी है और इसकी रचना में कहीं कहीं भाने वाले लोकभाषा के शब्द प्रयोगों की उपयोगिता को ध्यान में रखकर इस कथानक को यधालब्ध स्वरूप में प्रकाशित करना उचित समझा है। वैसे तो इस कथानक की रचना को एक सामान्य कोटि की रचना कह सकते हैं । इस बात को स्वय ग्रन्धकी ने गा० १९६९७ में सहज भाव से स्वीकार किया है। छदोमेल के लिए इस में 'कला' के बदले 'कल' (गा २५), 'अबणा' के बदले 'भजम' (गा ५०१) जैसे प्रयोग मिलते हैं। भागे चल कर तो 'कदप्पसमरूवो' के पदछे 'करप्पसमो स्पों (गा २५) जैसे अनादेय प्रयोग कर के भी छद का मेल बिठाया है। दो स्थानों में मात्रा घटती है, देखो (गा ३२ भौर ४५)। उस समय की लोकभाषा के प्रयोग भी इस में मिलते है। जैसे 'रति-रात्रि में, गु राते, (गा ११६), 'रयणि'-रात्रि में, गु रावे (गा ११९), 'न वि' के बदले 'नव' (गा १२७), 'मई'-गु म (गा १५१), 'भाषमाइ'भाषना से, गु भावना बडे (गा २७०)। इसमें अपभ्रश शब्द प्रयोग भी हुए हैं । देखो-'पुणु' गा १४७, 'मागच्छ' गा १५८, 'अणुजाणहु' गा २७७, 'मिच्छादुक्कडु' गा १९८ और 'अणतसंसारु गा ५७३। __ कहीं कहीं विभक्ति लोर भी किया है, जैसे-'मीर' गा .९, 'वाहलय' गा २९, 'बायोस परिस' गा १५६, 'सायण' गा ५०३ । १७६वी गाथा में 'महन्नाए' के स्थान पर 'अहस्स' रखकर लिंगव्यत्यय किया है। जैसे कि हम उपर कह भाये है-इस चरित्र में लोकभाषा के धन्द प्रयोग तथा अपक्ष के शब्द प्रयोग होने से इसे हम विशुद्ध प्राकृत रचमा नहीं कह सकते। इसमें लोकभाषा के प्रयोग इस प्रकार आते हैं हुय हुउ, गु थयु गा १५, सुकुमारीया-गु सुपाळी, पूरी गा १., 'वच्छग'-उत्सुक, गा ११४, 'उच्छकिय'-उत्साहवाला गा ११५, 'इम'-ऐसा, गु एम, गा १६८, घडनालमाला, गु गरनालु गा १८२ भौर राणी-राज्ञी, गु राणी । तदुपरान्त गा १५१ और १५९ में उस समय की लमषिधि एव रीतिरिवाज भी जानने को मिलते हैं। संपादक
SR No.520751
Book TitleSambodhi 1972 Vol 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1972
Total Pages416
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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