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निवेदन वर्षो अगाऊ, गुजराती भाषाना अग्रणी अने लोकप्रिय साहित्यकार गुलाबदास ब्रोकर- एक पुस्तक जोयेलुं : “साहित्य : तत्त्व अने तन्त्र'". साहित्य-विवेचनना ए - विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थमां एक लेखनुं शीर्षक आवं हतुं : "सर्जकनुं कर्तव्य : आसन से मत डोल".
आजे आ शीर्षक 'संशोधक'ना सन्दर्भमां याद आव्युं छे, अने कहेवानुं मन थाय छे के "संशोधक, कर्तव्य : आसन से मत डोल".
हा, संशोधक जो खरा अर्थमां, अथवा तो शोधकार्यने समर्पित-सन्निष्ठ संशोधक होय अने तेना संशोधनमां दम होय अने वजनदार मुद्दा होय, तो तेणे पोतानां तारणो थकी विचलित थर्बु न जोईए; कोई दबाण के भय के लालच के शरमने आधीन थई पोताना निष्कर्षोमां के संशोधनना मुद्दामां फेरफार करी नाखवानुं वलण अपनावतुं न जोईए.
एवं बने के संशोधन कोई परम्पराने, पारम्परिक धारणाओने के मान्यताओने प्रतिकूळ बनी जतुं होय. मान्यता जुदी होय, अने शिलालेखी, पुरातात्त्विक अने/ अथवा साहित्यिक प्रमाणो ते मान्यताथी जुदां, बल्के विपरीत होय. आवे वखते संशोधक पर दबाण आवे के तमारुं संशोधन फेरवी/बदली काढो, अथवा जाहेर ज न करो. आ माटे क्यारेक सम्बन्धोनी शरम लदाय, क्यारेक आर्थिक प्रलोभन अपाय, तो घणा भागे विरोध, प्रतिबन्ध, बहिष्कार, बदनामीनी धमकी अपाय. आवे वखते समर्पित अने सन्निष्ठ शोधकर्नु कर्तव्य एक ज होय : आसनसों मत डोल ! जे कार्य पोते स्वेच्छाए स्वीकार्यु छे; जेमां पोते विद्यानी उपासना मानी छे; जेने पोताना अन्तःकरणने यथार्थ जणायेलां तथ्यो अने साक्ष्यो द्वारा प्रमाणित ठरावेलुं छे; ते तारणो-निष्कर्षो के वस्तुस्थिति थकी, पोतानो अभिप्राय बदलवो नहि, एनुं नाम 'आसनसों मत डोल'.
संशोधक (अने सर्जक) ज्यारे आसन बदले छे; आसन पर ज विचलित थाय छे, त्यारे ते विद्यानो नहि, अविद्यानो उपासक, आपोआप, बनी बेसे छे. कोई लालच, भय के मजबूरीने कारणे, अथवा पोताना अंगत साम्प्रदायिक रागद्वेषने कारणे, प्रमाणित थयेला तथ्यने पण स्वीकारे नहि, पण नकारे, अने जे