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जुलाई - २०१४
२६७ कृति १मां – गाथा २ : मणइ - मिणइ. गा. ९ राखिहिव - राखि हिव. गा १० : पायहउ - पाय हउं. णस्स - [दी]णस्स. गा. १५ : चोथा चरणमा : मूहो सपदि - मू होस(सि) पदि. कृति २मां – गा. १५ : समूहसिय - समुल्लसिय. गा. २१ : करिहि बहूउ - करि हिव हूउ. आ ज कड़ीमां 'निश्चित' छपायुं छे त्यां अपभ्रंश भाषाना हिसाबे 'निच्चित' के 'निच्चंत' होवू जोइए. गा. २३ : सिव गण - सिवगमण. गा. २६ : तुहि हजि - तुहजि. गा. ३० : हित्था लंबणु दहि - हत्थालंबणु देहि. बन्ने कृतिओ पुनर्लेखन मागे
'अव्ययार्थसङ्ग्रह' संस्कृतना पाठ्यक्रममा स्थान पामी शके एवी कृति छे. अव्ययो विना सम्भाषण लूण वगरना भोजन जेवू बनी रहे. संस्कृतमां अव्ययोनी विपुलता छे ते सिद्ध करे छे के संस्कृत बोलचालनी भाषा हती, अने लांबा गाळा सुधी बोलाती रही हती. ___उपाध्याय शिवचन्द्र प्रणीत चार लघु कृतिओ रसप्रद छे. आ पाठक शिवचन्द्र नागोरी वड़ तपागच्छना हता. अहीं प्रकाशित चोथी कृति 'ज्ञानस्तव' पार्श्वचन्द्रगच्छमां आजे पण गवाय छे. 'चिदानन्दलहरी'मां संशोधनपात्र स्थानो घणां.छे. ... ग्रन्थस्वाध्याय करतां जे नवो पदार्थ स्पष्ट थयो होय ते अभ्यासी वर्गना लाभार्थे प्रकट करवो ए एक अत्युपयोगी/आवकार्य प्रवृत्ति छे. 'जीवसमास' प्रकरण अंगे त्रैलोक्यमण्डन वि. नो स्वाध्यायलेख छपायो छे. आ प्रकरण उपर चारेक विवरण रचाया छे. केटलीक शास्त्रीय बाबतोमां आगमिक अने कार्मग्रन्थिक परम्परामां भिन्न मत जोवा मळे छे. सामान्य रीते बन्ने परम्पराओनो आदर उल्लेख करी जे-ते विषय पूरो करवामां आवे छे, परन्तु जीवसमासनी एक टीकामां ग्रन्थगत भिन्न मतोनु खण्डन करवामां आव्युं छे. टीकाकार मलधारीजी क्यांक वळी पोताना आगमिक पक्षथी विरुद्ध जइने भिन्न मतनुं समर्थन पण करे छे. त्रै.वि.ना लेखमां आ बधुं विगतवार चर्चायुं छे अने यथासम्भव समाधान पण क्यांक अपायुं छे.
शिवदास कृत 'कामावती'मां अपायेली समस्याओना थोडा ऊकेल आ होई शके : १. रोटली वणवानो चकलो (पाटलो), वेलण अने रोटली.
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