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________________ ८६ अनुसन्धान ५० (२) में आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में सम्पन्न वाचना में वहां की क्षेत्रीय भाषा शौरसेनी का प्रभाव उस पर आया और इसे माथुरी वाचना के नाम से जाना गया । ज्ञातव्य है कि यापनीय और दिगम्बर अचेल परम्परा के ग्रन्थों में जो भी आगमिक अंश पाये जाते हैं, वे जैन शौरसेनी के नाम से ही जाने जाते हैं क्योंकि इनमें एक ओर अर्धमागधी का और दूसरी ओर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव देखा जाता है। अचेल परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा विशुद्ध शौरसेनी न होकर अर्धमागधी और महाराष्ट्री से प्रभावित शौरसेनी है और इसीलिए इसे जैन शौरसेनी कहा जाता है । इस प्रकार मगध (मध्य बिहार) एवं समीपवर्ती क्षेत्रों की और शौरसेन प्रदेश (वर्तमान पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा) की क्षेत्रीय बोलियों से साहित्यिक प्राकृत भाषा के रूप में क्रमशः अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत का विकास हुआ । अर्धमागधी जब पश्चिमी भारत और सौराष्ट्र में पहुंची, वह शौरसेन प्रदेश से होकर ही वहां तक पहुंची थी। अतः उसमें क्वचित शब्दरूप : शौरसेनी के आ गये । पुनः मथुरा की वाचना के समकालिक वलभी में नागार्जुन की अध्यक्षता में जो वाचना हुई उसमें, और उसके लगभग १५० वर्ष पश्चात् पुनः वलभी में (वीर निर्वाण संवत् ९८०) में जो वाचना होकर आगमों का सम्पादन एवं लेखन कार्य हुआ, उस समय उनमें, वहां की क्षेत्रीय बोली महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आया । इस प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य क्वचित रूप से शौरसेनी और अधिक रूप में महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुआ। फिर भी ऐसा लगता है कि नियुक्ति, भाष्य और चूर्णिकाल तक (ईसा की द्वितीय शती से सातवीं शती तक) उसके अर्धमागधी स्वरूप को सुरक्षित रखने का प्रयत्न भी हुआ है । चूर्णिगत 'पाठों' में तथा अचेल परम्परा के मूलाचार, भगवती आराधना तथा उसकी अपराजित सूरि की टीका, कषायपाहुड, षट्खण्डागम आदि और उनकी टीकाओं में ये अर्धमागधी रूप आज भी देखे जाते हैं । उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का वर्तमान 'रामगुत्ते' पाठ, जो मूल में 'रामपुत्ते' था, चूर्णि में 'रामाउत्ते' के रूप में सुरक्षित है । इसी प्रकार हम देखते हैं कि मागधी कैसे अर्धमागधी बनी और फिर उस पर शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव कैसे आया ? इन प्राकृत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.520551
Book TitleAnusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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