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अनुसन्धान ५० (२)
ज्ञान-दर्शन होय छे. अभिधर्मकोशभाष्य १.४३मां कडं छे के चक्षु अर्थात् इन्द्रियो देखे छे अने मन जाणे छे, स्थविरो अनुसार मन- (मनोविज्ञानमुं) कार्य सन्तीरण (investigating, ईहा, ऊह) अने वोट्टपन (determining निश्चयप्रक्रिया) छे. पांच इन्द्रियविज्ञानो सन्तीरण अने वोट्टपनथी रहित छे. भदन्त घोषक अभिधर्मामृतमां कहे छे के पांच इन्द्रियविज्ञानो विवेक करवा समर्थ नथी ज्यारे मनोविज्ञान विवेक करवा समर्थ छे. "पंच विज्ञानानि न शक्नुवन्ति विवेक्तुम्, मनोविज्ञानं शक्नोति विवेक्तुम् ।" ५.१०. आ उपरथी ओ तारण नीकळे छे के व्युत्थानदशामां दर्शननो अर्थ छे निर्विकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष अने ज्ञाननो अर्थ छे सविकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष अने अन्य सविकल्पक ज्ञानो. अहीं दर्शननी उत्पत्ति पहेलां अने ज्ञाननी उत्पत्ति पछी क्रम छे. अहीं निर्विकल्पकनो अर्थ सामान्यग्राही करवो शक्य ज नथी, कारण के बौद्धोने मते सामान्य जेवी कोई वस्तु ज नथी, सामान्य अवस्तु छे, कल्पना छे. अटले निर्विकल्पक अटले निर्विचार अने सविकल्पक अटले सविचार अ ज अर्थ छे. अने आ ज अर्थ ध्यानदशानी बे प्रकारनी प्रज्ञाओ अने व्युत्थानदशाना बे प्रकारना बोध ओ बंने कोटिओमां अकसरखो ज रहे छे.
बौद्ध परम्परामां पण जैन परम्परानी जेम ओक ज तत्त्वने (= चित्तने = आत्माने) ज्ञान पण छे अने दर्शन पण छे; वळी ज्ञानने पोताने ज थतुं पोतार्नु संवेदन (स्वसंवेदन) छे. सर्व ज्ञानो स्वसंविदित ज छे. परंतु बौद्ध परम्परामां बाह्यार्थ- ग्रहण ज्ञान अने स्वसंवेदन दर्शन ओ रीतनो ज्ञान-दर्शननो भेद करवामां आव्यो नथी.
आम अन्य दर्शनोमांथी आपणने पर्याप्त सामग्री मळे छे, जे आपणने जैन परम्परामां ज्ञान-दर्शनना भेद अंगे जे मतभेद छे, तेनो उकेल शोधवामां सहाय करी शके.
C/o. २३, वाल्केश्वर सोसायटी, भुदरपुरा, आंबावाडी,
अमदावाद-१५
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