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मार्च २०१०
अरध नाम दरबारको वर कागदको तात सो तूम हमकुं दीजीये सो होवे दीनानाथ राधावरके कर वसे अक्षर पंच लख सोय आदको अक्षर गेडके बचे सो हमकुं देय शिवसुत माता नामके अक्षर चार धरेव मध्यको अक्षर छोड के सो तूम हमको देव धरम तणो छे सार छे उपरांठो घरनो
परदेशां जावो जरा थे म्हांने करजो आद दहे अंत दहे मध्य रहे इण मांय तूम दरसन बीन होत हे तूम दरसन ते जात गोर शिखरो निपजे उर मंडन जे होय सो तो कोइ न साधीयो जीम जिवित सो कोइ हाल हालवो भूइ पातली लीखतहार सुजाण हाथे वावे मुखे लूणे नेनां करे वखाण चंचल रूख अनेक फल फल फल जुदां नाम तोडया पठे पाकसी कहो उन रूख को नाम बिन पगल्यां परवत चढे बिन दांता खड खाय हुं तूने पूछें हे सखी ओ कीस्यो जनावर जाय ? समुद्रकांठे नीपजे बिन डाली फल होय छतीसाकोस हयबो सखी यारे होय तो जोय जल बिन वाधे वेलडी जल विधा कुमलाय जो जल [से] नेडो करे जडामूलसुं जाय गगन सिखामां रिये परदेशा मेले भेट
वाणिया ब्राह्मण खावे कालजो इणको संसो देवो भेट
आठ पांव दो पेट हे मोरा उपर पूछ
इण गूढानी अरथ कहो नहितर केने राखो मूछ अकने पग ओक हे अकने पग चार
सारो जगतनो ढांकनो यमित करो विचार
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(दरशन)
(दर्शन)
(पावती) (पाती?)
(याद)
(दरद)
(अनाज)
(अक्षर)
(चक कुंभ)
(अग्नि)
(लूण)
(तृषा)
(केरी)
(तराजू)
(कपास)
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