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अनुसन्धान ५० (२)
७, ८वीं सदी की रचना प्रमाणित करने का प्रयत्न अवश्य किया है। किन्तु, द्वितीय अध्याय में प्रतिमार्चन में वस्त्राभूषणों का उल्लेख कर स्वतः ही सिद्ध कर दिया है कि यह रचना प्राचीन न होकर १५वीं, १६वीं सदी की है। ग्रन्थ का अवलोकन करने पर यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि इसका लेखक पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होगा । बाद में जैन मुनि/आचार्य बनकर जैन दर्शन का भी प्रौढ़ विद्वान् बना । आगम-निगम, द्वादशांगी को श्रुति, देवतत्त्व की अपेक्षा गुरुतत्त्व का प्रथम प्रतिपादन, पिप्पलाद-आसुरायण आदि ऋषियों का उल्लेख, ध्यान केन्द्रों के लिए बादरायण, ऋषि कूप, भार्गव कूप, अर्बुद आदि का उल्लेख, गुरुकुल निवासी, आर्यधर्म, सयोगी केवली को जीवनमुक्तचारित्र योगी, महाविदेह क्षेत्र को महादेव क्षेत्र और औपनिषदिक विज्ञानघन, विरजस्क, वितमस्क, साष्टांग आदि शताधिक शब्दों के प्रयोग इसके प्रमाण
में रखे जा सकते हैं। ४. अध्याय एक में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण हेतु पंच दिवसीय पर्युषण पर्व
आराधना करने का उल्लेख है। जबकि पर्युषणा पर्व आठ दिवस का माना गया है। सम्भव है इस आचार्य की निगम परम्परा में पर्युषण पांच दिन का ही होता होगा। मौलिक चिन्तन न होते हुए भी उपनिषद् शैली में ग्रथित 'आर्षभी विद्या' मौलिक ग्रन्थ है । अद्यावधि इसकी एक मात्र प्रति ही उपलब्ध है जो खण्डित और अशुद्ध भी है। अतः इसके खण्डित पाठों की पूर्ति कर
एवं संशोधन कर इसका प्रकाशन अवश्य किया जाना चाहिए । प्रति परिचय :
यह ग्रन्थ अद्यावधि अमुद्रित है। इसकी एक मात्र दुर्लभ हस्तलिखित प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के क्षेत्रीय कार्यालय, जयपुर के श्रीपूज्य श्रीजिनधरणेन्द्रसूरि संग्रह में परिग्रहणांक ७९७२ पर सुरक्षित है। साईज ३१.७ x १२.७ से.मी. है। पत्र सं० १०, पंक्ति १७, अक्षर ६० है । लेखन अशुद्ध है। किनारे खण्डित होने से पाठ खण्डित हो गये हैं। प्रान्त पुष्पिका में लेखन संवत् इस प्रकार दिया है :- 'श्रीपत्तने सं० १५५४ वर्षे ॥ शुभमस्तु ।'
- C/o. प्राकृत भारती, जयपुर
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