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अनुसन्धान ५० (२)
आचार में पुष्पित-फलित नहीं हुआ । लिङ्गभेद, जातिभेद, पुरोहितप्रधानता आदि कारणों से तथा जैन और बौद्धों द्वारा किये गए तीव्र वैचारिक संघर्षों से सर्वसमावेशक, विधिविधानात्मक पत्र-पुष्प-हिरण्य-सुवर्ण-प्रतिमापूजन-विसर्जन, नैवेद्य, प्रसाद, उद्यापन, दान आदि अतीव आकर्षक रूप में नया सामाजिक पहलू लेकर हिन्दु पुराणों द्वारा व्रतों का प्रचलन हुआ । जैन आचार्यों को उपवास, तप, निवृत्तिप्रधान, नीरस धर्मव्यवहार में परिवर्तन लाने की अत्यधिक आवश्यकता महसूस हुई । इहलौकिक सुखसमृद्धि और स्वर्गप्राप्ति को नजरअंदाज न करते हुए ग्यारहवी सदी से लेकर पंद्रहवी सदी तक जैनों में भी विधिविधानात्मक व्रतों का खूब प्रचार हुआ । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय मन्दिर और प्रतिमा निर्माण, पूजा-प्रतिष्ठा, विधिविधान, यन्त्र-मन्त्र में निमग्न हुए । सोलहवी सदी में गुजरात में लौंकाशाह नामक धार्मिक श्रावक ने इन सब नये कर्मकाण्डात्मक धर्म के विरुद्ध जैन-जागृति की तथा 'स्थानकवासी' सम्प्रदाय का आरम्भ किया। मन्दिर, पूजा, प्रतिष्ठा तथा नानाविध विधिविधानात्मक व्रतों को हटाकर मूलगामी, सिद्धान्तप्रधान जैन धर्म की ओर कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों का झुकाव बढा ।
प्रायः इसी समय हिन्दुओं में पौराणिक धर्माचार से ऊबकर एक स्वयम्भू अमूर्त ईश्वर को प्रधानता देनेवाले शीखसम्प्रदाय का उदय और प्रसार होने लगा । राम, कृष्ण, विठ्ठल आदि एक मूर्त ईश्वर का नामसंकीर्तन तथा भक्ति इनपर आधारित सम्प्रदाय उद्भूत हुए ।
भारतीय संस्कृति के बहुपेडी आयामों का क्रियाप्रतिक्रियात्मक सिलसिला आरम्भ से लेकर आजतक जारी है। 'व्रतसंकल्पना' को केन्द्रस्थान में रखकर अगर हिन्दु और जैन धार्मिक आचारों का परीक्षण करें तो उपर्युक्त लेखाजोखा सामने उभरकर आता है।
सन्दर्भ १. धर्मशास्त्राचा इतिहास (उत्तरार्ध) पृ. १५९-१६१ २. अथर्ववेद ११.७.६; शतपथ ब्राह्मण १०.१.२.४; महाभारत १.६४.४२; २.२०.४;
३.१०.३; १२.२४.१७; वामणपुराण ६२.३८; स्कन्दपुराण १.३.११.६६ ३. धर्मशास्त्राचा इतिहास (उत्तराध) पृ. १६२
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