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________________ 84 परनी पीडा थोडां जाणइ, जेहनइ भार पडइ ते ताणइ, मूलि वरास्यां हैडुं आपी, नेहवेलि धरथी नवि कापी । १२ जी० अरति अभूख ऊजागरु रे, आवटणूं निसिदीहो, सहिवा ते दुरिजन बोलणां रे, तिइं संताप्यां, नेहो । तिइं संताप्यां, फटि रे, नेहा, झूरी झूरी पंजर हूइ देहा, तुह्मथी सीख हवी मुझ हैइ, नेह न कीजइ त्यां सुख लहीइ । १३ जी० नेह संभारइ दुख दहइ रे, गहिबर होइ सरीरो, कागल सी परि मोकलुं रे, कोइ न गुणगंभीरो । कोइ न गुणगंभीर जे साथइ, कागल पुहचइ तुह्मारइ हाथइ, गुण संभारइ हैडुं खीजइ, आंसूनीरिइं कागल भीजइ । १४ जी० कागल कुहुनई मोकलुं रे, कुहुनइ काहावू संदेसो, तुझो आंहां कइ हूं इहां रे, बिमां कोइ न विदेसो । बिमां कोइ न वसई विदेसइ, तुम्हस्युं जीव रमइ निसिदीसिइ, संदेसु मन मिलतिइं जाण्यो, जीव मिलंतिइ सांइ मान्यो । १५ जी० कुसुमवने वासु वस्यु रे, अलि मालति-स्युं लीणो, आउलि फूल न सांभरइ रे, परिमलरसगुणहीणो । परिमलरसगुणहीन न समरइ, जिम मालति-सोरंभ पसरइ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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