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________________ 82 तुझ गुणि गहिलपणउं अम्ह कीधउं, निसनेहीनइं हांसुं दीधुं । ३ जी० वीसार्यां नवि वीसरइ रे, समरिआ दहइ अपारो, वेध लाइ रहिया वेगलइ रे, वलती न कीधी सारो । वलती न कीधी सार सरागी, योगीनी परि रही लइ लागी, चतुरपणउं एणइ वेधिइं लीधुं, लोक कहइ कांई कामण कीधुं । ४ जी० परदेसी - सिउं प्रीतडी रे, आवटणउं दिनरात्यो, अवर अध्यातम मेहलीआ रे, वली वली एह ज वातो । वली वली एह ज वात, रे सांई, निसिदिन तुम्ह - स्युं रहे मन लाइ, संदेसइ करी हैडुं हीसइ, पुण्य हुइ तु नयणे दीसइ । ५ जी० मनकुं नहीं ऊमाहलु रे, नयणाकुं हइ प्यासो, विहि मुझ सरजि न पंखडी रे, जिम पुहुचाडुं आसो । जिम पहुचाडुं आस हुं जाइ, पंख बिकाती दिइ नव धाइ, तुझ विरहानलि छाती ताती, समिध विना विहि मुहि दइ पकाती । ६ जी० रसलोभी मन - पंखीउ रे, तुह्म गुणपंजर- पासो, डरतु विरहकु घातीआ रे, लीनु लीलविलासो । लीनु लीलविलास हो कीली, सुरिजन नेहकी म करे ढीली, Jain Education International सूचक वचनघणे मत भाजई, तुझ-स्यु लाड, करइ ते छाजइ । ७ जी० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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