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सहिवा ते दुरिजन बोलणां रे, तिरं संताप्यां नेहो ।
तिनं संताप्या, फटि रे, नेहा,
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झूरी झूरी पंजर हुई देहा ।
मनोदशा तो 'अवर अध्यातम महेलीआ रे, वली वली एह ज वातो' सुधी पहोंची छे. ने विचार क्यां सुधी पहोंचे छे ?
तुझथी सीख हवी मुझ हैइ,
नेह न कीजइ तां सुख लहीइ ।
हैयाने माटे अहीं आसक्तिना दावानलथी भडके बळता वननी कल्पना थई छे तेथी तो विरहवेदनानी प्रचंडता व्यक्त थाय छे. 'वेध दवानल लाई रह्या रे, बलइ ते हैडा - वेड्यो. '
सीमंधरस्वामी विदेशे - महाविदेहक्षेत्रमां वसनारा छे ऐ आ बन्ने काव्योनी भूमिका छे, जे एमां निरूपित विरहव्यथा अने उत्कंठाना भावने निमित्त पूरुं पाडे छे. काव्यनो सघळो ठाठ ए भूमिका पर ऊभेलो छे. परदेशी साथेनी प्रीतनो उल्लेख बन्ने काव्योमां अवारनवार आवे छे. पण 'चंद्राउला' मां ए साथे ज एक नवतर, अने जरा मूंझवे एवो, विचारफणगो प्राप्त थाय छे : कागल कुहुनइ मोकलु रे, कुहुनइ काहावूं संदेसो, तु आंहा कइ हूं इहां रे, बिमां कोइ न विदेसो । आपणने थाय के कवि आ शुं कही रह्या छे ? 'तमे अहीं ने हुं पण अहीं ज, बेमांथी कोई विदेशे नथी' ए तो आ काव्यमां ज अन्यत्र जे कहेवायुं छे तेनी विरोधी वात थई. आमां कंई गरबड तो नथी ने ? पण आगळनी पंक्तिओ वांचतां लागे छे के आमां कंई गरबड नथी :
बिमां कोइ न वसई विदेसइ,
तुम्ह - स्युं जीव रमइ निसिदिसिइ, संदेसु मन मिलतिइं जाण्यो,
जीव मिलंतिइ सांइ मान्यो ।
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