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________________ 222 थाय. एकवार कहे : 'भायाणीसाहेब बहु मोटा विद्वान अने तमारा गुरु ए खलं, पण तमे ए कारणे टीकानो भोग शुं काम बनो छो ?' मारे कहेवू पडे : 'दादा ? आवां काम बदल में के भायाणी साहेबे कोई ज वेतन ली, नथी. ने फार्बसने पुनः मुद्रण माटे आपवानुं तो अकादमीए आगळ ज विचारीने नक्की कर्यु छे एमां...' परंतु अपप्रचार एटली हदे चाल्यो के अकादमीए बे-चार निश्चित एवा विद्वानोने प्रश्नोत्तरमां आ कामो विशे पूछ्युं अने एनो जोईतो जवाब तो मेळव्यो ने एनुं पुस्तक पण कर्यु ! में वीगते स्पष्टता करी तो आखी योजना दिशा चूकी गई एवी वातो लखाती थई. भायाणीसाहेब वारंवार कहे : आ काम अद्भुत छे ने तमारां समयशक्ति अपायां एनुं रेकग्निशन थाय एने बदले दोषारोपण ? में कह्यु : तमारो संतोष अने अभिप्राय ज एथी विशेष छे. अने समय तो बोलशे, पांच-पचास वर्षे जेने पण मध्यकालीन कथासाहित्य के लोकसाहित्य विशे, संगीत विशे जाणवू हशे, अभ्यास करवो हशे ए तो.... छेल्ले मांदगी विशेष गंभीर अने चिंताजनक बनी. दवाखाने दाखल कर्या. परंतु एवा अकळाया अने मन्यु जाग्यो के नाक-गळानी नळीओ काढी नाखी अने बळवो करीने घरे पाछा आव्या. हुं सपरिवार घरे गयो. माझं क्यारेक सांभळे ने स्वीकारे परंतु मारी पण एमनो मन्यु जागे त्यारे हिंमत न चाले. परंतु मारी दीकरी युवा अय्यरनी वात सांभळे अने ए जे सारवार सूचवे तेनो अचक अमल करे. आश्चर्य थाय एटला झडपथी साजा थई गया. थोडा दिवस पछी तो ए ज फाईलो, लेखो, माथा परनां काम ! ए जाणे केटलुक पोते ज करी शकशे. अधूरुं रहेशे तो कायम माटे ! एटले फरी बधुं पूरु कर्यु. दिवाळी गई. वर्ष गयु. काम चालतुं थयु. ने पछी फोन आव्यो : 'पुस्तको काढी राख्या छे. लई जजो. तमारे जोतां होय ए तमे राखजो. बीजां मेघाणी लोकविद्या संशोधन भवनने.' मारी सेवानिवृत्ति पछीनी लोकसाहित्यनी ए संस्था. एमनां ज प्रेरणा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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