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________________ 114 (४) ( राग : आसासिंधू ) वली वली से दसि जोइइ रे मनोहर दीसइ वाट मन अलजउ धरइ आविवा रे तुम नेहडा माटि. २४ वाहलाजी करिनई अह्मारी सार क्षणि क्षणि समरुं गुण ज तोरा आसाढी मेह जिम समरइ मोरा पूनिम दिन जिम चंद चकोरा फूल तणा गुण भ्रमर भलेरा. वा. २५ द्रुपद आंणी वाटइं जाणु आवसइ रे तिणि वेधिइ रहुं बारि आशा - बांधिउं मन रहइ रे न लहइ असूर सवार. वा. २६ तुझ उपरि मुझ नेहडइ रे साखी चंद सुजांण घणु कहि स्यु कारिमूं रे तुझ हाथि मुझ प्राण. वा. २७ पसरी तुम मन मांडविइ रे मनोहर अझ गुणवेलि हिंजलि नितु सीचजो रे जिम हुइ रंगरेलि. वा. २८ किहां सूरिज किहां कमलिनी रे किहां मोर किहां मेह, दूरि गया किम वीसरइ रे उत्तम तणा सनेह. वा. २९ मानस समरइ हंसला रे चातिक समरइ मेह कमल भमर विंझ हाथीआ रे, तिम समरुं तुझ नेह. वा. ३० (५) ( राग : धन्यासी) चतुर चमकइ चीतडइ तु चालतां भुंइ सोहइ रे अमीय झरइ मुखि बोलंतां तु तोरइ नयनभ्रमिं सहू मोहइ रे. ३१ एहवा रे गुण तुम्ह तणा कांई कहतां नाव पार रे मन मांहिं जाणुं घणुं मोहणवेलि अवतार रे. ३२ द्रुपद. Jain Education International जव जगदीसर मेलस्य तव मलसु सुरंगइ रे कहसु मनना दुःखडां तु अलजउ छइ अति अंगइ रे. एहवा. ३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520518
Book TitleAnusandhan 2001 00 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages292
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size15 MB
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