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अत्यन्त कठिन काम को पूर्ण रूपेण कर दिखाया है, एवं इस शाश्वत मूल्यवान महाग्रन्थ को अभ्यासियों और विद्वानो के लिये सस्ते मूल्य में सुलभ भी बना दिया है। इसके लिये उनका जितना आभार माने एवं अभिनन्दन करें उतना ही थोड़ा है। क्योंकि इस विशेषांक का मूल्य भी केवल दस रूपया है।
श्री ललवानी जी ने इस विशेषांक को तैयार करने में कितनी सतर्कता रखी है यह तो इसी से जाना जाता है कि उन्होनें श्री बर्जेस के ग्रन्थ की दृष्टि दोष से रही मुद्रण की अशुद्धियों को भी परिमार्जित कर डाला है। इस विशेषांक का 'शत्रजय' नाम दिया है। मूलग्रन्थ से ही टाइटल पेज का ब्लाक बनाकर छापा है। इसके अतिरिक्त श्री ललवानी जी ने इस विशेषांक का छोटी-मोटी सभी बातों पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया है।
ऐसे समृद्ध कलात्मक और प्राचीन पुस्तक के पुनर्मुद्रण के उत्तम नमूने स्वरूप इस विशेषांक को तैयार करने में जैन भवन के संचालकों को कितनी बड़ी मार्थिक व्यवस्था करनी पड़ी होगी वह तो वर्तमान की असाधारण मूल्य वृद्धि को देखते हुये सहज ही समझा जा सकता है। इसके लिये हमें इनका अन्तःकरण से आभार मानना चाहिए। वास्तव में वे एक श्रेष्ठ कार्य के सहयोगी बने हैं। हम 'जैन जर्नल' के इस विशेषांक का अन्तर से स्वागत करते हैं और चाहते हैं कि जैन संघ इसकी तथा जैन भवन की सेवा को पहचान कर इसका पादर करें।
'जैन', 28 मई 1977 के अग्रलेख से
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