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________________ - जिन सूत्र भागः1 दूसरों तक न पहंचेगा, लेकिन तुम तो उससे मुक्त न हो जाओगे। संत तो चौबीस घंटे विश्राम में है। विश्राम ही उसकी से तो केवल प्रगट होता था, जन्मता थोड़े ही था! असत्य तो महावीर के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा सज्जन कहना चाहिए, वह भीतर बैठा है। बोलने से दूसरे को भी खबर मिल जाती थी। भी शिष्टाचारवश...। यह जो तथाकथित संत है यह एक क्षण तो जो व्यक्ति चरित्र को साध लेगा शास्त्र के अनुसार, बिना को भी विश्राम में नहीं है; हो नहीं सकता, क्योंकि यह डरा हुआ स्वयं की दृष्टि के, दूसरों के और उसके बीच के संबंध तो ठीक है। जब भी अपने को ढीला छोड़ेगा, शिथिल करेगा, तो जो दबा हो जायेंगे, वह व्यक्ति नैतिक हो जायेगा लेकिन महावीर रखा है वह गांठ खुलेगी। कहते हैं-धार्मिक नहीं। मोक्ष उसके लिए नहीं है। परम आनंद का द्वार उसके लिए न खुलेगा। वह अच्छा नागरिक हो जायेगा। नहीं हो पाते! क्योंकि तुम शिथिल हुए तो कहीं झूठ निकल न सज्जन हो जायेगा, लेकिन संत नहीं। जाये! तुम कहीं गपशप में, बातचीत करने में भूल गए और कह सज्जन का अर्थ है, जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं दिया किसी से, तो झूठ बोलनेवाला आदमी ज्यादा नहीं बोलता, पहुंचता। लेकिन स्वयं तो सज्जन अपना आत्मघात करता रहता सोच-सोचकर बोलता है। और जो बहुत झूठ बोलता है, वह तो है। जहर किसी पर नहीं फेंकता, लेकिन खुद ही पीता चला जाता चौबीस घंटे सचेष्ट रहता है। है। तो खुद ही के रोएं-रोएं में, रग-रग में, श्वास-श्वास में जिसको तुम सज्जन कहते हो उसने जीवन का सबसे बड़ा झूठ जहर फैल जाता है। तो जिनको तुम सच्चरित्र कहते हो, कभी बोला है—जो उसके भीतर नहीं है वह उसने बाहर करके उनकी अंतरात्मा में भी झांककर देखना; तुम उन्हें दुश्चरित्रों से दिखला दिया है। वह सबसे बड़ी असत्य घटना है। आत्मा में भी ज्यादा जहर से भरा हुआ पाओगे। पाओगे ही, क्योंकि नहीं है वह, आचरण में बतला दिया है। इस बड़े झूठ का दुश्चरित्र तो थोड़ा-बहुत बाहर भी फेंक लेता है; वह तो भीतर ही परिणाम यह होता है कि तुम्हारा सज्जन तो विश्राम ले ही नहीं इकट्ठा किए चले जाते हैं। दुश्चरित्र का तो थोड़ा रेचन भी हो सकता। वह चौबीस घंटे संगीनधारी की तरह अपनी ही छाती पर जाता है, उनका तो कोई रेचन भी नहीं होता। दुश्चरित्र तो ऐसा है पहरा देता है। यह कोई संत की अवस्था न हुई। यह कोई मुक्ति कि श्वास लेता है; जीवनदायी आक्सीजन को पी लेता है, न हुई। यह तो बुरी तरह बंध जाना हुआ। जीवन-विरोधी कार्बन डाय-आक्साइड को बाहर फेंक देता है। महावीर कहते हैं : दसणभट्ठा भट्ठा। भटका वही, जिसके पास लेकिन तुम जिसे सज्जन कहते हो, वह ऐसा है कि कार्बन | आंख नहीं। डाय-आक्साइड को भीतर इकट्ठा किए जाता है फेफड़ों में, बाहर सारा जोर दृष्टि पर है, आंख पर है। नहीं फेंकता। उसके खुद के फेफड़े सड़ने लगते हैं। सज्जन एक तथाकथित चरित्रवान व्यक्ति ऐसा है जैसे कोई अंधा व्यक्ति तरह के आत्मिक कैंसर की दशा में होता है। एक ही रास्ते पर बार-बार आ-जाकर धीरे-धीरे इतना अभ्यस्त इसलिए एक बहुत बड़ा चमत्कार मनोवैज्ञानिकों को अनुभव में हो जाये कि आंख की तो जरूरत ही नहीं होती; लेकिन वह बिना आया है कि गहनतम अपराधियों की आंखों में भी कभी-कभी लकड़ी टेके, बिना किसी का सहारा खोजे, बिना टटोले, बिना बच्चों जैसा निर्दोष भाव होता है। लेकिन तम्हारे तथाकथित संतों पछे, निरंतर उसी रास्ते पर आने-जाने के का की आंखों में नहीं होता। उनकी आंखों में बड़ी जटिलता, बड़ा की वजह से ऐसा चलने लगता है जैसा आंखवाले को चलना गणित, बड़ा हिसाब...! और वे चौबीस घंटे अपने को पकड़े चाहिए। उसे चलते देखकर राह पर शायद तुम भी चमत्कृत हो हुए हैं। क्षणभर को ढीला छोड़ा, तो वह जो बांध रखा है जन्मभर जाओगे। शायद तुम्हें भी शक होगा कि कहीं आंख इस आदमी का जहर वह बिखर सकता है। को मिल तो नहीं गयी। क्योंकि वह ठीक वैसा ही चल रहा है संत क्षणभर को विश्राम नहीं करता। संत के लिए कहते | जैसे आंखवाले चल रहे हैं। लेकिन गहरा फर्क है। यह चलना हैं-कोई छुट्टी नहीं।...तथाकथित संत के लिए! वास्तविक | केवल अभ्यासवश है। यह निरंतर इसी रास्ते पर आने-जाने से 1624 Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340129
Book TitleJinsutra Lecture 29 Moksh ka Dwar Samyak Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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