________________ दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिझंति।।७१।। सम्मत्तस्स य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो। सम्मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो।।७२।। किं बहणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं / / 73 / / जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पई, कसायविसएहिं सप्पुरिसो।।७४।। उवभोगमिंदियेहिं, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं / / 75 / / संवेतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई।।७६।। न कामभोगा समयं उवेति, न यावि भोगा विगई उवेति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, से तेसु मोहा विगई विगई उवेई।।७७।। ENT Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwjainelibrar og