________________ : पलकन पग पोंछं आज पिया के आते हैं। इसलिए शास्त्र कहते हैं, बड़ा दुर्गम है मार्ग। प्राण तो खो ही गये हैं, लाश रह गई है। हां, लाश को भी ठीक पहुंच-पहुंचकर छूट जाता है। हाथ में आते-आते मंजिल हजारों से रासायनिक द्रव्य लगाकर रखो तो सुंदर मालूम हो सकती है। कोस के फासले पर हो जाती है। लेकिन लाश लाश है। सुंदरतम व्यक्ति की भी लाश लाश है। प्राण ही खो गये! प्राण तो विधायक तत्व है। तीसरा प्रश्नः आप महावीर की अहिंसा पर बोलते हैं तो प्रेम | प्रेम विधायक तत्व है। प्रेम का अर्थ है: कुछ तुम्हारे भीतर है। जोड़ देते हैं; बुद्ध के शून्य पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं। अहिंसा का तो कुल इतना ही अर्थ है कि दूसरे के साथ बुरा मत आप कुछ भी बोलते हैं तो प्रेम उसमें अनिवार्यतः जोड़ देते हैं। करना। क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही आप | और यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं: जब तक तुम दूसरे के प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं। कृपाकर कहें। साथ भला करने में न लग जाओ, तुम बुरा करने से न बच सकोगे। तुम कुछ तो करोगे। जीवन कृत्य है, कर्म है। अगर मैं जोड़ता नहीं, उघाड़ता हूं। अहिंसा नाम की मंजूषा में प्रेम का तुम्हारे रास्ते पर फूल न बिछाऊंगा तो मैं कांटे बिछाऊंगा। और ही धन छिपा है। खोलता हूं मंजूषा को। तुमसे कहता हूं, इसके ऐसा आदमी तुम न पाओगे जो कहे कि मैं सिर्फ कांटे नहीं भीतर तो देखो! यह मंजूषा बाहर से भी बड़ी सुंदर है! बड़ी| बिछाता तुम्हारे रास्ते पर, फूल से मुझे क्या लेना-देना। तुम नक्काशी है इस पर! बड़े कारीगरों ने मेहनत की है! लेकिन पाओगे कि यह आदमी या तो इतना सिकुड़ जायेगा, जैसे जैन मंजूषा कितनी ही सुंदर हो, मंजूषा है; भीतर तो देखो! मुनि सिकुड़ गये हैं कि फिर यह डरने लगेगा जीवन में उतरने से; अहिंसा तो शब्द है; सार तो प्रेम है! और अगर सार मर जाये क्योंकि उतरा कि कुछ कृत्य हुआ, कृत्य हुआ तो या तो कांटे तो फिर अहिंसा पर तुम कितनी ही नक्काशी करते रहो, फिर बिछाओ या फूल बिछाओ। और इसकी सारी शिक्षण की मंजूषा को तुम ढोते रहो सदियों-सदियों तक—उससे जीवन, | व्यवस्था यह हो गई : कांटे मत बिछाना। फूल बिछाने की तो उससे अमृत, उससे आनंद का आविर्भाव न होगा। फिर अहिंसा इसने हिम्मत खो दी। फूल बिछाने का तो खयाल ही छोड़ दिया। तार्किकों के हाथ में पड़ जायेगी। फिर वे शब्द की ही बाल की कांटे नहीं बिछाना है! खाल निकालते रहेंगे। तुम अगर किसी व्यक्ति की बीमारियां भर अलग करना चाहते महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया प्रेम के लिए। मैं हो और उसके जीवन में स्वास्थ्य की आकांक्षा नहीं करते तो तुम कहता हूं कि अहिंसा को हटाओ और भीतर झांककर देखो। | उसे स्वास्थ्य न दे पाओगे और बीमारियां भी अलग न कर खोलो इस मंजूषा को! पाओगे। क्योंकि बीमारी का अलग होना और उसके भीतर जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ता हूं। स्वास्थ्य का जन्म होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अहिंसा हो ही कैसे सकती है बिना प्रेम के? दूसरे को दुख न दूसरे को दुख न दूं, यह गौण बात है। दूसरे को मेरे जीवन से दो-यह हो ही कैसे सकता है जब तक कि दूसरे के प्रति प्रेम का सुख मिले—यह मूल बात है। आविर्भाव न हुआ हो? और अगर तुमने इसे नियम और प्रेम का इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे की प्रसन्नता में प्रसन्न होने औपचारिक व्यवस्था की तरह मान लिया कि दूसरे को दुख नहीं लगे। क्या है प्रेम का अर्थ? तुम कहते हो, मुझे अपनी पत्नी से देना है, क्योंकि दूसरे को दुख देने से नर्क मिलता है-प्रेम के प्रेम है या बेटे से प्रेम है या मित्र से प्रेम है-क्या मतलब है? कारण नहीं, भय के कारण दूसरे को दुख नहीं देना है तो इतना ही मतलब है कि जब तुम्हारा बेटा प्रसन्न होता है, तब तुम तुम्हारी अहिंसा में बहुत अहिंसा न होगी। तुम्हारी अहिंसा में भी प्रसन्न होते हो। जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगती हिंसा प्रगट होगी। तुम्हारी अहिंसा में फिर प्रेम के फूल न है, तो प्रेम। और जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें अप्रसन्न करने खिलेंगे। तुम्हारी अहिंसा निर्जीव होगी। | लगती है, तो घृणा। जब दूसरे की अप्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने ऐसा हुआ है, जैनों की अहिंसा निर्जीव हो गई है। उसमें से लगती है तो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, शत्रता, हिंसा। और जब 1443 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|