________________ जिन सूत्र भाग झुकता है। बायें को दायें से सम्हालता है, दायें को बायें से शराबे-कुहन फिर पिला साकिया! सम्हालता है। ऐसे बीच में तनी रस्सी पर चलता है। -बड़ी प्यारी पंक्तियां हैं। पंक्तियां यह कह रही हैं, अगर और धर्म तो खड्ग की धार है। वह तो बड़ा बारीक रास्ता है, राख का ढेर हो गये हम, तो क्या सार! हे परमात्मा, फिर थोड़ी संकीर्ण रास्ता है-ठीक खिंची हुई रस्सी की तरह दो खाइयों के शराब बरसा! बीच में। इधर संसार है, उधर परमात्मा है, बीच में खिंची हुई शराबे-कुहन फिर पिला साकिया रस्सी है—उस पर चलनेवाले को बड़ा कुशल होना चाहिए। वही जाम गर्दिश में ला साकिया तो अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम बुझ जाये और फिर वैराग्य हो, | -फिर वही जाम गर्दिश में ला। अभी संसार को प्रेम किया तो कुछ खास न हुआ। था, अब तुझे प्रेम करेंगे लेकिन फिर वही जाम दोहरा। प्रेम तो प्रेम जलता रहे और वैराग्य हो तो कुछ हुआ। बचे; जो व्यर्थ के लिए था वह सार्थक के लिये हो जाये। दौड़ तो बुझी इश्क की राख अंधेर है बचे; अभी वस्तुओं के लिए दौड़े थे, अब परमात्मा के लिये दौड़ मुसलमां नहीं राख का ढेर है हो जाये। शराबे-कुहन फिर पिला साकिया शराबे-कुहन फिर पिला साकिया वही जाम गर्दिश में ला साकिया वही जाम गर्दिश में ला साकिया मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा मुझे इश्क के पर लगा कर उड़ा! मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा -अभी इश्क के पर तो थे, लेकिन खिसकते रहे जमीन पर, जिगर में वही तीर फिर पार कर रगड़ते रहे नाक जमीन पर। मुझे इश्क के पर लगाकर उड़ा! उड़ें तमन्ना को सीने में बेदार कर। परमात्मा की तरफ, लेकिन पर तो इश्क के हों, प्रेम के हों। बुझी इश्क की राख अंधेर है। मेरी खाक जुगनू बना कर उड़ा प्रेम का अंगारा बुझ जाये तो फिर जिसे तुम वैराग्य कहते हो, जिगर से वही तीर फिर पार कर। वह राख ही राख है। -वह जो संसार में घटा था, वह जो किसी युवती के लिए प्रेम का अंगारा भी जलता रहे और जलाये न, तो कुछ घटा था, किसी युवक के लिए घटा था, वह जो धन के लिए घटा कुशलता हुई, तो कुछ तुमने साधा, तो तुमने कुछ पाया। था, पद के लिए घटा था—वही तीर! बुझी इश्क की राख अंधेर है जिगर से वही तीर फिर पार कर मुसलमां नहीं राख का ढेर है। तमन्ना को सीने में बेदार कर! -फिर वह आदमी धार्मिक नहीं, मुसलमां नहीं-राख का -वह जो वासना थी, आकांक्षा थी, अभीप्सा थी, वस्तुओं के ढेर है। | लिए, संसार के लिए उसे फिर जगा, लेकिन अब तेरे लिए! तो एक तरफ जलते हुए, उभरते हुए अंगारे ज्वालामुखी हैं, बहुत लोग हैं, अधिक लोग ऐसे ही हैं—जीते हैं, भोगते हैं, और एक तरफ राख के ढेर हैं-बुझ गये, ठंडे पड़ गये, प्राण ही लेकिन भोग करना उन्हें आया नहीं। वासना की है, चाहत में खो गये, निष्प्राण हो गये। तो एक तरफ पागल लोग हैं, और अपने को डुबाया, लेकिन चाहत की कला न आयी। एक तरफ मरे हुए लोग हैं। कहीं बीच में...! | न आया हमें इश्क करना न आया पागलपन इतना न मिट जाये कि मौत हो जाये, और पागलपन मरे उम्र भर और मरना न आया। इतना भी न हो कि होश खो जाये। पागलपन जिंदा रहे और फिर जीवन एक कला है और धर्म सबसे बड़ी कीमिया है। इसलिए भी मौत घट जाये। अहंकार मरे, तुम न मरो। संसार का भोग | मेरे लिए संन्यासी का जो अर्थ है, वह है : संतुलन, सम्यक मरे, परमात्मा का भोग न मरे। त्याग हो, लेकिन जीवंत हो, संतुलन, सम्यक न्यास; कुछ छोड़ना नहीं और सब छूट जाये; रसधार न सूख जाये। कहीं भागना नहीं और सबसे मुक्ति हो जाये; पैर पड़ते रहें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org