________________ संयम है संतुलन की परम अवस्था में भिड़े हैं। उनका सारा जोर करने पर है। __झेन गुरु कहते हैं कि तुम कुछ करो मत, सालभर तो न करने की हिम्मत जुटाओ, सिर्फ बैठे रहो। तो झेन साधक छह-छह घण्टे दिन में बैठा रहेगा आंख बंद किये। न हिलेगा, न डुलेगा; क्योंकि उतने में भी मन बाहर जा सकता है। पहले तो बड़ी बेचैनी होगी, सारी ताकत लगायेगा मन कि लगो, कुछ करो। कुछ नहीं तो कम से कम सोचो। कोई दिवास्वप्न देखो। कोई योजना करो, कुछ कामना करो-भीतर कुछ तो करो। लेकिन अगर आप बैठे ही रहे और कुछ न किया, और अगर न करने का साहस दिखा सके, तो थोड़े ही दिन में आप पायेंगे कि भीतर का अंधेरा कम होने लगा। भीतर कुछ-कुछ दिखाई पड़ने लगा। धूमिल रेखाएं प्रगट होने लगीं। छह महीने और सालभर का वक्त लग जाता है, जब आदमी को पहली दफा भीतर धूमिल रेखाएं प्रगट होती हैं। और जैसे ही यह धूमिल रेखाएं प्रगट होती हैं, अहोभाव पैदा होता है, एक आनंदभाव पैदा होता है कि मैं तो बिलकुल अलग हूं, यह शरीर तो बिलकुल अलग है। ___ और ध्यान रहे, शास्त्र पढ़ने से यह पता नहीं चलेगा। बहुत लोग यह कर रहे हैं कि शास्त्र पढ़ रहे हैं कि आत्मा भिन्न है शरीर भिन्न है-मैं आत्मा हं; मैं शरीर नहीं है, इसको शास्त्र में पढ़ रहे हैं। और रोज सुबह बैठकर इसको दोह दोहराने का मतलब नहीं है। दोहराने से कुछ भी न होगा। दोहराने से प्रकाश पैदा नहीं होता। दोहराने से तो केवल इतनी ही खबर लगती है कि अभी तुम्हें पता नहीं चला; अभी तुम किसी और की उधार बात दोहरा रहे हो। और तुम दोहरा-दोहराकर इस भ्रम में भी पड़ सकते हो कि तुम्हें ऐसा लगने लगे कि शरीर और आत्मा अलग हैं। लेकिन यह तुम्हारे प्रकाश का भीतरी अनुभव नहीं है। इसका कोई मूल्य नहीं है। यह दो कौड़ी का है। तुम जीवन खराब किये। किसी की मानने की जरूरत नहीं है। यह तो स्वयं अनुभव हो सकता है। लेकिन भीतर के अंधेरे के साथ आंखों का समायोजन करना होगा। और जन्मों-जन्मों से हमारा समायोजन हो गया है बाहर की रोशनी के साथ, इसे तोड़ना प्रतीक्षा और धैर्य की बात है। तो महावीर कहते हैं : जो न तो जानता किचेतन क्या है, जो न जानता कि जड़ क्या है; जो जीव-अजीव को नहीं पहचानता, वह साधक भला किस तरह संयम साधेगा? लेकिन कितने लोग संयम साध रहे हैं, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है कि जीव क्या है, अजीव क्या है। जब मैं कहता हूं, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है तो मेरा मतलब यह नहीं है कि उन्होंने शास्त्र से नहीं सुना है। शास्त्र में लिखा है कि जीव और अजीव भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन शास्त्र से कोई आपका ज्ञान नहीं निर्मित होता। शास्त्र से तो सिर्फ आपका अज्ञान ढंकता है-रहते तो आप अज्ञानी हैं; शास्त्र के वचनों में छिप जाते हैं और भ्रांति पैदा होती है कि जान लिया। अज्ञान उतना खतरनाक नहीं है, जितना थोथा ज्ञान खतरनाक है। शास्त्र जितने लोगों को डुबाते हैं, उतनी और कोई चीज किसी को नहीं डुबाती। कई लोग कागज की नाव में बैठकर सागर में उतर जाते हैं। शास्त्र की नाव कागज की नाव है। उससे तो बेहतर है कि बिना नाव के उतर जाना। क्योंकि नाव का भरोसा न हो तो कम से कम अपने हाथ-पैर चलाने की कुछ कोशिश होगी। और जो बिना नाव के उतरेगा, वह तैरना सीखकर उतरेगा। जो नाव में बैठकर उतर जायेगा और कागज की नाव में-वह इस भरोसे में उतरेगा कि मुझे क्या करना है, नाव पार कर देगी। वह डूबेगा! लेकिन कागज की नाव में बैठने को कोई राजी न होगा, शास्त्र की नाव में बैठने को करीब-करीब पूरी पृथ्वी राजी हो गयी है। कोई 515 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org