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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 चल रहा है; आप ऐसा तो नहीं सोचेंगे, वैसा तो नहीं सोचेंगे। ___ एक तेरापंथी साधु मेरे पास ध्यान करने आये। तो मैंने उनसे कहा कि श्वास काफी तेज लेनी होगी, आप यह मुंह-पट्टी निकालकर ध्यान करें। तो उन्होंने कहा, निकाल तो लूंगा लेकिन आप किसी को बताना मत / मुंह-पट्टी तो उन्होंने मजे से निकाल दी। उन्हें कोई अड़चन भी नहीं हुई निकालने में / खुद भी अड़चन हो, तो मेरी समझ में आती है बात / उन्होंने कहा, मेरी निजी अनुभूति यह है कि मुंह-पट्टी निकालनी मुझे सहायता दे रही है, लेकिन चिंता सिर्फ इतनी है कि किसी को पता न चले। किसी को पता न चले, यह असाधु की चिंता है / साधु को दूसरे से प्रयोजन नहीं है। दूसरा निंदा ही करेगा। दूसरा सम्मान नहीं देगा। दूसरा सिर नहीं झुकायेगा। पर उसे झुकाने की जरूरत ही कहां है ? प्रयोजन ही नहीं है। साधु की चिंता नहीं है कि दूसरा क्या कहेगा। पब्लिक ओपिनियन असाधु की चिंता है। राजनैतिक नेता चिंता करे कि दूसरे क्या कहेंगे-समझ में आता है। क्योंकि सारी जिंदगी दूसरे पर निर्भर है; उसके वोट पर सारी आत्मा टिकी है। लेकिन साधु को दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन हम देखते हैं, जिसे हम साधु कहते हैं, उसे भी दूसरे से प्रयोजन है। वह भी राजनीति का ही हिस्सा है। धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा है। __ महावीर कहते हैं, जो अभिमान, अहंकार, दूसरों की धारणा को छोड़ देता है, वही ध्यान की तरफ लीन हो सकता है। क्योंकि अहंकार ले जाता है बाहर, दूसरे के पास; ध्यान ले जाता है भीतर, अपने पास / साधु वही है, जो ध्यान में लीन है / असाधु वही है, जो अभिमान में लीन है। ध्यान और अभिमान विपरीत आयाम हैं। 'जो महामुनि आर्यपद का उपदेश करता है, सद्धर्म का उपदेश करता है...।' और महावीर सद्धर्म किसे कहते हैं ? महावीर सद्धर्म उसे कहते हैं, जो स्वयं अनुभूत है। अन्यथा पांडित्य है। अन्यथा उधार है, बासा __ सत्य बासा नहीं हो सकता / सत्य उधार नहीं हो सकता। और अगर उधार है, तो सत्य नहीं होगा। आप गीता कंठस्थ कर ले सकते हैं, लेकिन आप गीता को कंठस्थ करके जो लोगों को उपदेश देंगे, वह सद्धर्म नहीं होगा-जब तक आप कृष्ण न हो जायें। जब तक गीता आपसे सहज-स्फूर्त न होने लगे, तब सद्धर्म होगा। सदगुरु जहां नहीं है, वहां सद्धर्म नहीं हो सकता। तो साधु का लक्षण है कि उधार को न समझाये; बासे को न समझाये; पिटे-पिटाये को न समझाये; कचरे को न समझाये / वह कचरा कभी बहुमूल्य रहा होगा--कभी, जब पहली दफे जन्मा था। लेकिन हमारी हालतें ऐसी हैं... __ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हर सर्दियों में वहीं कोट पहनता है। ऐसा लोग पचास साल से देख रहे हैं। वह कोट इतना गंदा गया है, उससे ऐसी बास आती है। थेगड़े निकल गये हैं। बिलकुल खंडहर है कोट के नाम पर / आखिर एक दिन एक मित्र ने कहा कि नसरुद्दीन, तुम्हारे बाप को भी हमने देखा है। क्या शानदार आदमी थे ! क्या कपड़े पहनते थे ! दूर-दूर से कपड़े मंगवाते थे ! और तुम यह कोट ही पहन रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा कि लो, यह वही कोट तो है जो मेरे बाप पहनते थे! महावीर जब कुछ कहते हैं तो वह जीवित है। जब जैन पंडित दोहराता है, तो मुर्दा है-वही कोट है, माना। महावीर कहते हैं, सद्धर्म का उपदेश करता है साधु / सद्धर्म से अर्थ है-जिसे जाना हो, जीया हो; जो जीवंत हो गया हो; जो सत्य बन गया स्वयं के लिए / जो स्वयं के लिए सत्य नहीं है, वह दूसरे के लिए सत्य कैसे हो सकता है ? जो मेरे लिए बासा है, वह आपके लिए और भी बासा हो गया। एक हाथ और चल गया। लोग दूसरे के जूते में पैर डालना पसंद नहीं करते ! उधार जूता कौन पहनना पसंद करेगा? लेकिन लोग दूसरे की आत्माएं पहन लेते हैं। जूते तक से डरते हैं, लेकिन आत्माएं पहन लेने में उन्हें कठिनाई नहीं होती। 480 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340050
Book TitleMahavir Vani Lecture 50 Kalyan Path par Khada hai Bhikshu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size86 MB
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