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________________ पांच समितियां और तीन गुप्तियां ना अनूठा ह। काफी है। और आज की चिंता, चिंता नहीं होती। तो महावीर तो, सुबह उठकर अपने पेट को देखेंगे कि भूख लगी है तो ही गांव में भिक्षा के लिए जायेंगे। ऐसा भी नहीं है कि आदतवश रोज भिक्षा के लिए जाना है ग्यारह बजे, तो रोज भिक्षा के लिए चले जायेंगे। महावीर के बारह वर्षों के साधना काल में कहा जाता है कि कुल तीन सौ पैंसठ दिन उन्होंने भिक्षा मांगी। मतलब बारह साल में एक साल भिक्षा मांगी। कभी महीना भीख मांगने नहीं गए, कभी दो महीना नहीं गये, कभी दस दिन, कभी आठ दिन, कभी चार दिन / कोई नियम नहीं था, कोई कसम भी नहीं थी, कोई व्रत भी नहीं लिया था। यह समझने-जैसी बात है—यह नहीं तय किया था कि दस दिन खाना नहीं खाऊंगा; क्योंकि वह दूसरी तरफ की ज्यादती है। महावीर प्रतीक्षा करेंगे, जब शरीर ही कहेगा कि अब भोजन चाहिए, तो वे उठेगे। और उन्होंने एक और अदभुत सूत्र निकाला था, जो सिर्फ महावीर का है। जो दुनिया में किसी दूसरे सिद्ध पुरुष ने जिसकी बात नहीं कही। वह बहुत ही ___ महावीर ने एक सूत्र निकाला था कि जब पेट में भूख लगती तो वे सोचते कि भूख लगती है, देखते, साक्षी बनते-भूख इतनी है कि भोजन की जरूरत है, तो भिक्षा मांगने जाते / लेकिन वे कहते; तय कर लेते वे सुबह ही कि ऐसी-ऐसी स्थिति में भिक्षा मिलेगी तो ही समझंगा कि मेरे भाग्य में है, नहीं तो नहीं लूंगा। जैसे—उस घर के सामने एक काली गाय खड़ी होगी; जो स्त्री भिक्षा देगी वह गर्भिणी होगी; कि एक बच्चे को अपनी गोदी में लिए होगी; कि दो आदमी दरवाजे पर लड़ रहे होंगे। कुछ तय कर लेते सुबह और फिर भिक्षा मांगने निकलते / अगर उस दिन उस जैसी कुछ स्थिति बन जाती, बड़ी संयोग की बात है-बन जाती तो भिक्षा ले लेते, नहीं बनती तो वापस लौट आते, कहते कि मेरे भाग्य में नहीं है। शरीर को भूख लगी जरूर, लेकिन मेरी नियति में नहीं है, मेरे पिछले कर्मों का हिस्सा नहीं है। भूख मेरी नियति में है तो आज मैं भूखा रहूंगा। आश्चर्य है कि बारह वर्ष में तीन सौ पैंसठ बार भी मिल गई भिक्षा / लेकिन महावीर निश्चिंत लौट आते कि जो भाग्य में नहीं है, वह नहीं; जो नियति में नहीं है, वह नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि मैं अब कर्ता नहीं रहा, अब मैं भीख मांगने नहीं जा रहा हूं। अगर यह पूरा अस्तित्व मुझे जिलाये रखना चाहता है आज, तो भिक्षा का इंतजाम जुटा देगा, मेरी शर्त पूरी कर देगा। नहीं शर्त पूरी करता है तो इसका मतलब हुआ कि अस्तित्व को आज मुझे भोजन देने की कोई जरूरत नहीं है। __और बड़े आश्चर्य की बात है कि महावीर रुग्ण नहीं हुए; महावीर दीन-हीन नहीं हो गये इन बारह वर्षों में; सूख नहीं गये। इतना संतोषी व्यक्ति किसी और ही दिशा से भोजन को पाना शुरू कर देता है। इतने संतुष्ट व्यक्ति को, जिसने नियति पर सब छोड़ दिया-भोजन भी, जैसे पूरा अस्तित्व अपने हाथों में संभाल लेता है। और अगर अस्तित्व चांद-तारों को चला सकता है, फूलों को खिला सकता है, वृक्षों को बड़ा कर सकता है, नदियों को बहा सकता है, अगर इतना बड़ा आयोजन अस्तित्व करता है, तो महावीर के छोटे-से पेट और शरीर की चिंता नहीं कर सकता, ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है। तो महावीर कहते हैं कि अगर अस्तित्व चलाना चाहता है तो ही मैं चलने को हूं, मेरी कोई वासना चलने की नहीं है। आप चलने की वासना से जब तक जीते हैं तब तक संसार को निर्मित करते हैं। जिस दिन आप ठहर जाते हैं; संसार की धारा जहां ले जाती है वहां जाते हैं, उस दिन आप मुक्त होने लगते हैं। तो महावीर ने 'एषणा' : भोजन, वस्त्र, सुरक्षा सब को सीमित कर देना है अंतिम बिंदु पर–कि उसके पार मृत्यु है, उसके इस पार जीवन है-ठीक मध्य में। चौथा-'आदान-निक्षेप' / लोग जो दें, उसमें भी सीमा रखनी, और होश रखना। 305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340042
Book TitleMahavir Vani Lecture 42 Panch Samitiya aur Tin Guptiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size82 MB
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