________________ महावीर-वाणी भाग : 2 कभी बनाया भी नहीं जाता-रूपांतरित होता है, बनता है, बिगड़ता है। लेकिन बनना और बिगड़ना सिर्फ रूप का होता है, मूल तत्व न ही बनता और न बिगड़ता। इस तरह के छह द्रव्य महावीर ने कहे हैं। ___पहला द्रव्य है धर्म, दूसरा अधर्म, तीसरा आकाश, चौथा काल, पांचवां पुदगल, छठवां जीव / परमात्मा की कोई जगह नहीं है, ये छह मूल द्रव्य हैं / ये छह सदा से हैं और सदा रहेंगे। और जो कुछ भी हमें बीच में दिखाई पड़ता है वह इन छह का मिलन और बिछुड़न है। इनका आपस में जुड़ना और अलग होना है। सारा संसार संयोग है, ये छह मूल द्रव्य हैं। माएं हैं और हर आत्मा परमात्मा होने की क्षमता रखती है, इसलिए महावीर की परमात्मा की धारणा को ठीक से समझ लें। की तीन अवस्थाएं हैं : एक अवस्था है आत्मा की-बहिर आत्मा / जब चेतना बाहर की तरफ बहती रहती है। दूसरी अवस्था है आत्मा की-अंतरात्मा / जब चेतना भीतर की तरफ बहती है। वासना में बहती है बाहर की तरफ, विचार में बहती है बाहर की तरफ तब आप बहिर आत्मा हैं-आत्मा की निम्नतम अवस्था / ध्यान में बहती है भीतर की तरफ. मौन में बहती है भीतर की तरफ. तब आप अंतरात्मा हैं- आत्मा की दसरी अवस्था / अवस्था है, जब चेतना कहीं भी नहीं बहती-न बाहर की तरफ, न भीतर की तरफ, सिर्फ होती है / बहना बंद हो जाता है। कोई गति और कोई कंपन नहीं रह जाता–समाधि / उस तीसरी अवस्था में आत्मा का नाम परमात्मा है। __ बहिर आत्मा से अंतरात्मा, अंतरात्मा से परमात्मा / और अनंत आत्माएं हैं, इसलिए अनंत परमात्मा हैं। और कोई आत्मा किसी में लीन नहीं हो जाती, क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने में स्वतंत्र द्रव्य है / अंतिम अवस्था में कोई भेद नहीं रह जाता, दो आत्माओं में कोई भेद नहीं रह जाता, कोई दीवार नहीं रह जाती, कोई अंतर नहीं रह जाता, किसी तरह का विवाद-विरोध नहीं रह जाता लेकिन फिर भी प्रत्येक आत्मा निजी होती है, इनडिविजुअल होती है। ये छह द्रव्य भी महावीर के बड़े अनूठे हैं, इनकी व्याख्या समझने-जैसी है : 'धर्म द्रव्य का लक्षण है, गति / ' बहुत अनूठी दृष्टि है। महावीर कहते हैं, जिससे भी गति होती है, वह धर्म है; और जिससे भी गति रुकती है, वह अधर्म है। जिससे भी विकास होता है, वह धर्म है; जिससे भी अभिव्यक्ति अपनी पूर्णता की तरफ पहुंचती है, वह धर्म है, और जिससे भी विकास रुकता है, वह अधर्म है। अधर्म को महावीर कहते हैं, स्थिति का तत्व रोकनेवाला; और धर्म को महावीर कहते हैं, गति का तत्व बढ़ानेवाला। दोनों हैं, आप पर निर्भर है कि आप किस तत्व के साथ अपने को जोड़ लेते हैं। अगर आप अधर्म के साथ अपने को जोड़ लेते हैं, तो आप रुक जाते हैं / जन्मों-जन्मों तक रुके रह सकते हैं। अगर आप धर्म के साथ अपने को जोड़ लेते हैं, तो बढ़ने शुरू हो जाते हैं। ___ एक मछली है, तैरने की क्षमता है उसमें, लेकिन वह भी पानी का सहारा न ले तो तैर न पायेगी; क्षमता है—पानी का सहारा ले तो तैर पायेगी। आपकी क्षमता है, क्षमता है परमात्मा होने की, लेकिन धर्म का सहारा लें तो तैर पायेंगे, अधर्म का सहारा लें तो रुक जायेंगे। अगर आप बहिर-आत्मा होकर रह गये हैं तो उसका कारण है कि आपने कहीं अधर्म का सहारा ले लिया है। ___ यह बहुत सोचने-जैसी बात है, महावीर बुराई को अधर्म नहीं कहते। जो भी रोक लेती है बात, वही अधर्म है। तो बुरे की व्याख्या भी नई हो जाती है। तब बुरे का अर्थ, अशुभ का अर्थ, पाप का अर्थ बड़ा नया हो जाता है। जीवन में जहां-जहां रोकनेवाले तत्व हैं, उनके साथ आपका जो गठबंधन है, वही अधर्म है। धर्म खोलेगा, मुक्त करेगा, स्वतंत्र करेगा, बंधनों को काटेगा। नाव बंधी है किनारे से, उसे किनारे की खूटियों से अलग करेगा और जैसे-जैसे किनारे की खूटियां हटती जायेंगी, नाव मुक्त होती जायेगी गति करने को। कहां-कहां हम बंधे हैं ? 186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org