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________________ एक ही नियम : होश बहुत घटित होगा, लेकिन मन से उसका कोई लेना-देना नहीं है। उसकी कोई अपेक्षा नहीं है, उसकी कोई आयोजना नहीं है। क्षण काफी है, क्षण अनंत है / जो मौजूद है वह बहुत है। ___ इसलिए प्रेम में एक गहन संतृप्ति है, एक गहन संतोष है / एक इतनी गहन तृप्ति का भाव है, फुलफिलमेंट का, सब... आप्तकाम मन हो जाता है। लेकिन हम प्रेमियों को देखें, वहां कोई फुलफिलमेंट नहीं है। वहां, सिवाय दुख, छीनाझपटी, कलह, और ज्यादा, और ज्यादा मिलना चाहिए, उसकी दौड़, प्रतिस्पर्धा, ईष्या ऐसी हजार तरह की बीमारियां हैं, तृप्ति का कोई भी भाव नहीं है। जिस प्रेम में मांग है, वह बंधनयुक्त है। और जिस प्रेम में दान है, वह बंधनमुक्त है। यह जो मुक्त दान है प्रेम का, इसमें अगर काम की घटना घटती हो; यह जो दान है मुक्त प्रेम का... इसे ठीक से समझ लें। ___ जिसमें मांग है उसमें तो काम घटेगा ही। घटेगा नहीं, काम के लिए ही प्रेम होगा।सेक्स ही आधार होगा सारे प्रेम का जिसमें व्यवसाय है। वहां प्रेम तो बहाना होगा। वैज्ञानिक कहते हैं, वह जस्ट ए फोर प्ले-वह कामवासना में उतरने के पहले की थोड़ी क्रिया। इसलिए जब नया-नया संबंध होता है दो व्यक्तियों का, तो काफी काम-क्रीड़ा चलती है। पति-पत्नी की काम-क्रीड़ा बंद हो जाती है। सीधा काम ही हो जाता है। फोर प्ले, वह जो पहले का खेल है वह सब बंद हो जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती, लोग आश्वस्त हो जाते हैं। __ जिसमें लक्ष्य कुछ और है, कुछ पाना है, वहां यौन केंद्र होगा। जहां लक्ष्य कोई और नहीं है, प्रेम देना है, वहां भी यौन घटित हो सकता है, लेकिन गौण होगा। छाया की तरह होगा। यौन के लिए वहां प्रेम नहीं होगा, प्रेम की घटना में यौन भी घट सकता है। लेकिन वह यौन सेक्सअल नहीं रह जायेगा / उसमें दष्टि ही परी बदल जायेगी। वह प्रेम की विराट घटना के बीच घटती हई एक घटना होगी। प्रेम यौन के लिए नहीं होगा, प्रेम में कहीं यौन समाविष्ट हो जायेगा। यह दूसरी स्थिति है, लेकिन यौन संभव है। इसकी शुद्धतम तीसरी स्थिति है जहां यौन तिरोहित हो जाता है। उसी को हम करुणा कहते हैं। जहां प्रेम बस प्रेम रह जाता है। न तो यौन लक्ष्य रहता, और न यौन, प्रेम के बीच में घटनेवाली कोई चीज रहती है। सिर्फ प्रेम रह जाता है। जैसे हम दीया जलायें, तो थोड़ा-सा धुआं उठे। जैसे हम धुआं करें, तो थोड़ी-सी लपट जले / एक आदमी धुआं करे तो थोड़ी-सी लपट जल जाये / ऐसा पहले ढंग का प्रेम / यौन, धुआं असली चीज है। अगर उस धुएं के करने में कहीं लपट जल जाती है प्रेम की, तो गौण है, बात अलग है। जल जाये तो ठीक, न जले तो ठीक / और जले भी तो उसके जलाने का मजा इतना ही है कि धुआं ठीक से दिखाई पड़ जाये / बाकी और कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरी स्थिति, जहां हम दीये की ज्योति जलाते हैं। लक्ष्य ज्योति का जलाना है। थोड़ा धुआं भी पैदा हो जाता है। धुएं के लिए ज्योति नहीं जलायी है। ज्योति जलाते हैं तो थोड़ा धुआं पैदा हो जाता है। प्रेम जलाते हैं तो थोड़ा-सा यौन सरक आता है। तीसरी अवस्था है, जहां सिर्फ शुद्ध ज्योति रह जाती है, कोई धुआं नहीं रहता-स्मोकलेस फ्लेम, धूम्ररहित ज्योति / उसका नाम करुणा है। ___ हम पहले प्रेम में जीते हैं। कभी-कभी कोई कवि, कोई चित्रकार, कोई संगीतज्ञ, कोई कलात्मक, एस्थेटिक बुद्धि की प्रज्ञा, दूसरे प्रेम को उपलब्ध होती है। लाखों में एक और कभी करोड़ों में एक व्यक्ति तीसरे प्रेम को उपलब्ध होता है- बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट, कृष्ण यह है शुद्ध प्रेम / यहां अब लेने का तो कोई सवाल ही नहीं है, यहां अब देने का भी भाव नहीं है। इसको ठीक से समझ लें। यहां लेने का तो कोई सवाल ही नहीं है, यहां देने का भी कोई भाव नहीं है। यहां तो करुणा ऐसे ही बहती है 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340030
Book TitleMahavir Vani Lecture 30 Ek hi Niyam Hosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size68 MB
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