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________________ पहले एक-दो प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि स्नेहयुक्त प्रेम और स्नेहमुक्त प्रेम में क्या अंतर है। साथ ही काम, प्रेम और करुणा की आंतरिक भिन्नता पर भी कुछ कहें। ___ जिस प्रेम को हम जानते हैं, वह एक बंधन है, मुक्ति नहीं / और जो प्रेम बंधन है उसे प्रेम कहना भी व्यर्थ ही है। प्रेम का बंधन पैदा होता है अपेक्षा से / मैं किसी को प्रेम करूं तो मैं सिर्फ प्रेम करता नहीं, कुछ पाने को प्रेम करता हूं / प्रेम करना शायद साधन है, प्रेम पाना साध्य है / मैं प्रेम पाना चाहता हूं, इसलिए प्रेम करता हूँ। ___ मेरा प्रेम करना एक इनवेस्टमेंट है। उसके बिना प्रेम पाना असंभव है / इसलिए जब मैं प्रेम करता हूं प्रेम पाने के लिए, तब प्रेम करना केवल साधन है, साध्य नहीं। नजर मेरी पाने पर लगी है / देना गौण है, देना पाने के लिए ही है। अगर बिना दिये चल जाये तो मैं बिना दिये चला लंगा। अगर झूठा धोखा देने से चल जाये कि मैं प्रेम दे रहा है, तो मैं धोखे से चला लंगा, क्योंकि मेरी आकांक्षा देने की नहीं, पाने की है। मिलना चाहिए। __ जब भी हम देते हैं कुछ पाने को, तो हम सौदा करते हैं / स्वभावतः सौदे में हम कम देना चाहेंगे और ज्यादा पाना चाहेंगे। इसलिए सभी सौदे के प्रेम व्यवसाय हो जाते हैं, और सभी व्यवसाय कलह को उत्पन्न करते हैं। क्योंकि सभी व्यवसाय के गहरे में लोभ है, छीनना है, झपटना है, लेना है। इसलिए हम इस पर तो ध्यान ही नहीं देते कि हमने कितना दिया। हम सदा इस पर ध्यान देते हैं कि कितना मिला। और दोनों ही व्यक्ति इसी पर ध्यान देते हैं कि कितना मिला। दोनों ही देने में उत्सुक नहीं हैं, पाने में उत्सुक हैं। ___ वस्तुतः हम देना बंद ही कर देते हैं और पाने की आकांक्षा में पीड़ित होते रहते हैं / फिर प्रत्येक को यह खयाल होता है कि मैंने बहुत दिया और मिला कुछ भी नहीं। ___ इसलिए हर प्रेमी सोचता है कि मैंने इतना दिया और पाया क्या? मां सोचती है, मैंने बेटे को इतना प्रेम दिया और मिला क्या? पत्नी सोचती है कि मैंने पति को इतना प्रेम दिया और मिला क्या? पति सोचता है, मैंने पत्नी के लिए सब कुछ किया, मुझे मिला क्या? ___ जो आदमी भी आपको कहीं कहते मिले कि मैंने इतना किया और मुझे मिला क्या, आप समझ लेना, उसने प्रेम किया नहीं, सौदा किया / दृष्टि ही जब पाने पर लगी हो, तो प्रेम जन्मता ही नहीं / यही अपेक्षा से भरा हुआ प्रेम बंधन बन जाता है / और तब इस प्रेम से सिवाय दुख के, पीड़ा के, कलह के और जहर के कछ भी पैदा नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340030
Book TitleMahavir Vani Lecture 30 Ek hi Niyam Hosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size68 MB
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