________________ महावीर-वाणी भाग : 1 फॉर कंपनी हैल। अगर सिर्फ स्वास्थ्य सुधार ही करना हो, मगर अकेला रहना पड़ेगा स्वर्ग में, आबोहवा तो बहुत अच्छी है वहां, लेकिन कंपनी बिलकुल नहीं है। __ महावीर स्वामी बगल में बैठे भी हों आपके, तो भी कंपनी नहीं हो सकती। कंपनी चाहिए तो नरक। वहां जानदार, रंगीले लोग हैं, वहां कंपनी है, वहां चर्चा है, मजाक है, बातचीत है। उसने तो मजाक में ही कहा था, लेकिन बात में थोड़ी सच्चाई है, लेकिन इसे दूसरे पहलू से देखें तो यह मजाक गंभीर हो जाता है। असल में जो लोग भी भीतर नरक में हैं, वह हमेशा कंपनी की खोज में होते हैं। जो लोग भीतर खुद से दुखी हैं, वे साथी खोजते हैं। जो भीतर आनंदित है, वह अपना साथी काफी है, किसी और साथ की कोई जरूरत नहीं। ___ सुना है मैंने इकहार्ट के बाबत, ईसाई फकीर हुआ है। पश्चिम ने जो थोड़े से कीमती आदमी दिये हैं, महावीर और बुद्ध की हैसियत के, उनमें से एक। इकहार्ट अकेला बैठा है। एक मित्र रास्ते से गुजरता था। उसने सोचा, बेचारा अकेला बैठा है, ऊब गया होगा। वह मित्र आया और उसने कहा कि अकेले बैठे हो, मैंने सोचा जाता तो हूं जरूरी काम से, लेकिन थोड़ा तुम्हें साथ दे दूं, टु गिव यू कंपनी। इकहार्ट ने कहा, हे परमात्मा! अब तक मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया। आई वॉज अप टु नाउ विद मी, यू हैव मेड मी एलोन। अब तक मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, कि तुम अपनी कंपनी कहीं और ले जाओ। तुम किसी और को साथ दो। हम अपने साथ में काफी हैं, पर्याप्त हैं। जो अपने भीतर सोचता है, अपर्याप्त हूं, वह साथ खोजता है। __ लोभ अपने से अतृप्ति है। लोभ का मतलब है, मैं अपने से राजी नहीं हूं। कुछ और चाहिए राजी होने के लिए। और जो अपने से राजी नहीं है उसे कुछ भी मिल जाये, वह कभी राजी नहीं हो सकता। क्योंकि कुछ भी मिल जाये, वह मुझसे दूर ही रहेगा मेरे निकट तो मैं ही हूं। कितनी ही सुंदर पत्नी खोज लूं, फासला रहेगा। और कितना ही अच्छा मकान बना लूं, फासला रहेगा। और कितना ही धन का अंबार लग जाये, फासला रहेगा। मेरे पास तो मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं आ सकता। मैं अपने साथ तो रहूंगा ही, धन हो कि गरीबी, साथी हो कि अकेलापन, मैं अपने साथ तो रहूंगा ही। और अगर मैं अपने से ही राजी नहीं हूं तो मैं जगत में कभी भी राजी नहीं हो सकता। __ लोभ का मतलब है, अपने से राजी न होना। किसी और से राजी होने की कोशिश है लोभ / जब कोई इस कोशिश में सफलता दे देता है, तो मोह हो जाता है। तब हम कहते हैं, इसके बिना मैं नहीं जी सकता। यह है मोह। कहते हैं, अगर यह हट गया तो मेरी जिंदगी बेकार है, यह है मोह। फिर कोई बाधा डालता है और मेरी इस लोभ की खोज में अवरोध बन जाता है, तो क्रोध उठता है, मिटा डालूंगा इसे। जिससे मोह बनता है, उससे हम कहते हैं, अगर यह मिट जाये तो मैं जी न सकूँगा। और जिससे हमारा क्रोध बनता है, तो हम कहते हैं, जब तक यह है मैं जी न सकूँगा। इसे मिटा डालो। ___ मोह और क्रोध विपरीत पहलू हैं, एक ही घटना के। और यह जो लोभ है हमारे भीतर, दूसरे की तलाश-इस दूसरे की तलाश में हमारी जो शक्तियों का नियोजन है, उसका नाम काम है, उसका नाम सेक्स है। हमारे भीतर जो ऊर्जा है, जीवन की शक्ति है, जब यह शक्ति दूसरे की तलाश में निकल जाती है, तो काम बन जाती है। यह बड़े मजे की बात है, थोड़ी दुरुह भी। हमें खयाल में नहीं आता है कि जब एक आदमी धन का दीवाना होता है, तो धन की दीवानगी उसके लिए वैसे ही कामवासना होती है जैसे कोई किसी स्त्री का दीवाना हो। वह रुपये को हाथ में रख कर वैसे ही देखता है, जैसे 466 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org