________________ अरात्रि-भोजन-सूत्र अत्थंगयंमि आइज्चे, पुरस्था य अणुग्गए। आहारमाइयं सव्वं, भणसा वि न पत्थए।। पाणिवह-मुसावायाऽदत्त मेहुण-परिग्गहा विरओ। राइभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो।। सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव अर्थात निर्दोष हो जाता है। 462 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.