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________________ अरात्रि-भोजन : शरीर-ऊर्जा का संतुलन पहली दफे आप साइकिल क्यों नहीं चला पाते? बिठा दिया आपको, और धक्का दे दिया, चला लें! क्योंकि दुबारा भी कुछ ज्यादा नहीं करेंगे आप, अभी भी कर सकते हैं यही। लेकिन अभी भय है, बस। और पता नहीं कि क्या होगा। वह भय के कारण आप गिर जाते हैं। दो चार दफा गिरकर दो चार दफा धक्के खा कर अक्ल आ जाती है। चलाने लगते हैं। चेतना एक भीतरी नियंत्रण है, एक संतुलन है। अपने शरीर में चेतना को गतिमान करना सीखें। एक तीन महीने निरंतर अभ्यास से आप समर्थ हो जायेंगे, जहां चेतना को ले जाना चाहें। अगर फिर आपके बायें हाथ में दर्द हो रहा है, आप चेतना को दायें हाथ में ले जायें, दर्द विलीन हो जायेगा। आपके पैर में कांटा गड़ गया है, आप चेतना को पैर से हटा लें, सोख लें भीतर, कांटा विलीन हो जायेगा। जिस दिन आपको यह समझ आ जाये उसी दिन अनशन उपवास बन सकता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले भूखे मरते रहें, उससे कुछ होनेवाला नहीं है। कुछ होनेवाला नहीं है खुद को सताने में कुछ मजा आये तो आये, कोई जुलूस यात्रा वगैरह आपकी निकाल दे तो बात अलग। नासमझ मिल जाते हैं, यात्रा निकालनेवाले भी / उसका कारण है, ये सब म्युचुअल मामले हैं। कल वे ही नासमझी करेंगे तब आप उनकी यात्रा में सम्मिलित हो जाना। आदमी इसीलिए यात्राओं में सम्मिलित हो जाता है कि कल अपनी निकली तो कोई सम्मिलित न होगा। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपनी पत्नी से कह रहा है कि नहीं, आज मैं जाऊंगा ही नहीं। पत्नी ने कहा, 'क्या मामला है, कहां जाने की बात है?' मुल्ला नसरुद्दीन के मित्र की पत्नी मर गयी है। तो नसरुद्दीन कहता है, 'आज मैं नहीं जाऊंगा।' पत्नी कहती है, 'क्या आप पागल हो गये हैं? जाना ही पड़ेगा।' नसरुद्दीन ने कहा, 'वह तीन दफे मौका दे चुका मुझे, तीन पत्नियां मर चुकीं, मैंने उसे अब तक एक भी अवसर नहीं दिया। ऐसे बड़ी हीनता मालूम पड़ती है, कि चले हर बार / अब तक अपने ने कोई मौका ही नहीं दिया। और वह है कि दिये चला जा रहा है।' __ म्युचुअल, पारस्परिक है सब लेन-देन। यहां सब लेन-देन का हिसाब है। यहां सारा खेल उस पर टिका हआ है। तो नासमझ आपको मिल जायेंगे, आपके जलस में जाने को। क्योंकि वह भी आशा लगाये बैठे हैं कि कभी न कभी आप भी उनके जलस में आयेंगे। शायद इसमें कुछ रस आ जाये तो बात अलग, लेकिन आपका अनशन, अनशन ही रहेगा, उपवास नहीं बन सकता। उपवास तो एक भीतरी विज्ञान है। इस विज्ञान का पहला सत्र है. चेतना को शरीर के अंगों में प्रवाहित करने की क्षमता, सचेतन, स्वे जब यह क्षमता आ जाती है तो फिर चेतना को शरीर के बाहर ले जाने की दूसरी प्रक्रिया है कि शरीर के, चेतना के बाहर ले जाना। जब शरीर के बाहर चेतना जाने लगती है तभी भूख, प्यास, दुख, पीड़ा का कोई पता नहीं चलता। तो महावीर ने कहा है, इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। 'हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव, निर्दोष हो जाता है।' __ निराश्रव महावीर का अपना शब्द है, और बड़ा कीमती है। आश्रव, महावीर कहते हैं उन द्वारों को, जिनसे हमारे भीतर बाहर से चीजें आती हैं। आश्रव यानी आना। निराश्रव, मतलब बाहर से हमारे भीतर अब कुछ भी नहीं आता। अब हम अपने में आप्त-काम, अब हम अपने में पूरे हैं। अब कोई मांग न रही बाहर से। अब सारा संसार भी इस क्षण खो जाये, बिलकुल खो जाये, तो ऐसा ही लगेगा, एक स्वप्न समाप्त हुआ। इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इससे कोई भेद नहीं पड़ेगा। निवाश्रव का अर्थ है कि बाहर से आने का जो भी यात्रा पथ था, वह समाप्त हो गया। अब किसी यात्री को हम भीतर नहीं बलाते। अब हमारे भीतर कोई भी नहीं आता। न धन, न प्रेम, न घृणा, न क्रोध, अब कुछ भी हम भीतर नहीं आने देते। न मित्र, न शत्रु, अब 477 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340025
Book TitleMahavir Vani Lecture 25 Aratri Bhojan Sharir Urja ka Santulan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size80 MB
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