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जिनवाणी 10 जनवरी 2011 भेद-विज्ञान “मैं अजर-अमर अविनाशी चेतन हूँ, सभी संयोग पर हैं मेरे नहीं,” का ज्ञान कर वीतराग बन जाता है। उन महामनीषी का चिन्तन, उनका पावन प्रवचन उनका निष्कलुष आचरण, सभी मानो इसी भेद विज्ञान के साक्षी रहे हों, तभी तो वे ऐसे विरले आचार्यों की श्रेणी में आये जो आलोचना व विधि के साथ पूर्ण सजग अवस्था में अन्तः प्रेरित स्वेच्छा से सबसे निःसंग हो पूर्णतः आत्मस्थ हो गये ।
पंच महाव्रतों का निरतिचार पालन, पांच इन्द्रियों पर विजय, चारों कषायों का शमन, भाव, योग व करण की सत्यता, क्षमा, वैराग्य, मन-वचन-काय - समाधरणीया, ज्ञान-दर्शन चारित्र सम्पन्ना, वेदनीय समाअहियासणिया एवं मरणांतिय समा अहियासणिया, ये सभी गुण गुरुदेव में प्रत्यक्ष दृष्टिगत होते थे। श्रमणजीवन की दो विशिष्ट प्रतिज्ञाएँ होती हैं- गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करना व हर क्षण अप्रमत्त रहना । ' णमो पुरिसवरगंधहत्थीणं' के लेखन कार्य के समय हमें उन महाभाग की दैनन्दनियों के अवलोकन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । भगवन्त ने जहाँ-जहाँ अपने पूज्यपाद संयम धन प्रदाता गुरुदेव का स्मरण किया है, उनके अंतःकरण के वे उद्गार उनके श्रद्धा समर्पण व भक्ति के स्वतः साक्ष्य हैं। वे शिष्य धन्य होते हैं जिनके घट में गुरु विराजमान होते हैं, पर जो स्वयं गुरु के घर में विराजमान हो जाय, उनकी गुरुभक्ति, आज्ञापालन व श्रद्धा समर्पण का तो कहना ही क्या? वे सच्चे अर्थ में शोभा गुरु के अन्तेवासी थे। जब तक पूज्य गुरुदेव पार्थिव देह में विराजमान रहे- संयम स्वीकार करते समय उनकी मनोभावना“जीवन धन आज समर्पित है गुरुदेव तुम्हारे चरणों में...काया छायावत् साथ रहे, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में” सदा वृद्धिमान होती रही।
गुरुदेव का प्रत्यक्ष सान्निध्य उन्हें भले ही बहुत कम मिल पाया, पर संयम - जीवन में मानो वे प्रतिपल अपने महनीय गुरुदेव के सान्निध्य में रहे, तभी तो अपने अन्तिम संघ - दायित्व निर्वहन के उत्तराधिकारी आचार्य के मनोनयन में उनके हस्ताक्षर मात्र एक पत्र पर हस्ताक्षर नहीं, वरन् इतिहास में एक माइलस्टोन के रूप में अंकित हो गये - " शोभाचार्य शिष्य संघ सेवक हस्ती " ।
संत भगवंतों के तीन मनोरथ होते हैं- आगमों का अध्ययन, दृढ़ रहकर एकल विहारी बनना व समाधिमरण। गुरु चरणों में समर्पित हो प्रखर मेधा के धनी उन महापुरुष ने आगमों को कंठस्थ किया, आगम रहस्य का तलस्पर्शी अध्ययन कर उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया। वे संघ में रहकर भी निःसंग थे, सबके बीच रहते हुए सदा अकेले रहे, इस माने में वे एकलविहारी रहे व उनका समाधिमरण तो अब जगविश्रुत है, इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित है। सरल, सहज जीवन जीने वाले ही समाधिमरण को प्राप्त कर पाते हैं।
बुराई करे नहीं, भलाई का फल चाहे नहीं, भलाई का अभिमान करे नहीं, तब जाकर जीव आलोचना (आत्म-आलोचना) करने का अधिकारी बनता है तथा जब साधक मिले हुए का सदुपयोग कर, क्रियात्मक सेवा करता हुआ भावात्मक सेवा में लगकर अपने स्वयं के दोषों को देखता है तब
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