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जिनवाणी 10 जनवरी 2011 तक अपने धर्म संघ का संघनायकत्व- ये सभी श्रमण भगवान महावीर के शासन के बेमिसाल कीर्तिमान कहे जा सकते हैं। अंतिम वेला में 13 दिवसीय तप संथारे की भव्य साधना से उन्होंने अपने संयम - जीवन पर मानो अमृत कलश प्रतिष्ठापित किया हो । वस्तुतः यह उनके सुदीर्घ संयम - जीवन का शिखर सोपान था। जन्म के साथ ही मृत्यु की ओर कदम आगे बढ़ जाते हैं, उन महापुरुष ने संयम-जीवन के प्रथम क्षण से ही अपने अन्तिम लक्ष्य का निर्धारण कर उस ओर अपने आपको गतिशील कर दिया ।
साधक लक्ष्य की पहिचान, लक्ष्य निर्धारण व लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प कर अप्रमत्तता व सजगता के साथ अनवरत श्रम कर ही सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। पूज्यपाद ने शिशुवय में ही अपने लक्ष्य को पहिचान कर लक्ष्य प्राप्ति का दृढ़ संकल्प कर लिया था जो उनकी अपनी माता के साथ संवाद से स्पष्टतया परिलक्षित होता है- “ . मेरा भी मन संसार में रहने का नहीं है । .. .. मैं भी तुम्हारे साथ ही दीक्षित होना चाहता हूँ।. .. माँ उन पूज्यश्री के प्रथम दर्शन समय से ही मेरा मन जीवन भर उनके चरणों की सुखद, शीतल, छाया में रहने को करता है।” ('नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं' से उद्धृत) बालपन में संयम का दृढ़ संकल्प, माता द्वारा प्रदर्शित पावन पथ को सहज अंगीकार करने की दृढ़ भावना तथा मोक्ष - गमन की उत्कट अभिलाषा से संसार को त्याग करने को आतुर वैराग्यभाव, संयम स्वीकार करने के पश्चात् गुरुचरणों में सर्वतोभावेन समर्पण एवं अहर्निश मनसा वचसा कर्मणा उनका अखंडित ब्रह्मचर्य मानो उनके निष्पाप जीवन में एक साथ ही आर्यवज्र, आर्यरक्षित, आर्य जम्बू, गणधर गौतम एवं आर्य स्थूलिभद्र की गुण सौरभ एक साथ सुवासित हो गई हो।
उनके जीवन में कण-कण में प्रसिद्धि नहीं, सिद्धि का भाव समाया था, उनके प्रवचनामृत का लक्ष्य श्रोता को प्रभावित करने का नहीं, उनके जीवन को प्रभावित करने का था । लघु काया में वे एक विराट् व्यक्तित्व थे। उन्होंने औपचारिक शिक्षा भले ही न पाई हो, बड़े से बड़े प्रकाण्ड पंडित व विद्वान भी उनसे अपनी ज्ञान-पिपासा तुष्ट कर अपने आपको धन्य-धन्य समझते वणिक पुत्र होकर भी वे राज्याधिकारियों, न्यायाधिपतियों, अभिभावकों, उद्योगपतियों व बुद्धिजीवियों के गुरु । सम्प्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी वे सभी के पूज्य थे। वे भक्तों से नहीं, भक्त उनका शिष्यत्व स्वीकार कर तथा वे पदों से नहीं, पद उनसे महिमा मंडित हुए । देश, काल व व्यक्ति जो-जो उनसे जुड़े, धन्य-धन्य हो गये। रत्नकुक्षिधारिणी मां रूपा उन्हें जन्म दे धन्य-धन्य हो गई, बोहरा कुल व पीपाड़ नगर उनके अवतरण से कीर्तिवन्त हो गये, वयःसम्पन्न शिक्षा गुरु हर्षचन्द्र जी म.सा. इस शिशु को धर्मशिक्षा व आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. उन्हें संयम - धन प्रदान कर, जिनशासन को एक चिन्तामणिरत्न प्रदान करने का यशोपार्जन कर गये । रत्न परम्परा उनका सुदीर्घ सान्निध्य संरक्षण पा समृद्ध हो गई, लक्षाधिक भक्त उनके पावन दर्शन, वंदन व सान्निध्य से कृतकृत्य हो गये। जिनकी ओर भी उनकी दृष्टि उठी, वे निहाल हो गए। जिनको भी उन्होंने संभाला, उनका जीवन पवित्र पावन हो गया। गुण सुमन भी उनके
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