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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 करता हुआ निरन्तर आकुलता-व्याकुलता को सहन करता रहता है। उसे कभी स्थायी आनन्द नहीं मिल रहा है। स्थायी आनन्द के लिये भगवान् महावीर ने जो मार्ग बताया है, वह है
नाणेण जाणइ भावेदंसणेणयसदृहे।
चरित्तेण निगिण्हाइतवेण परिसुज्झाई।।-उत्तराध्ययन सूत्र, 28.35 अर्थात् ज्ञान के द्वारा जीवाजीवादि भावों को जानना, हेय और उपादेय को पहचानना, दर्शन से तत्त्व का श्रद्धान करना, चारित्र से आने वाले रागादि विकार युक्त कर्म-दलों को रोकना एवं तपस्या से पूर्व संचित कर्मों का क्षय करना, यही संक्षेप में मुक्ति-मार्ग या आत्मशुद्धि की साधना है। गृहस्थ और गृहत्यागी अणगार दोनों इसकी साधना कर सकते हैं। परन्तु गृहस्थ और अणगार की साधना में बहुत बड़ा अन्तर होता है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। श्रमण अपनी साधना की विशिष्टताओं के कारण साधारण व्यक्तियों से बहुत ऊपर उठ जाता है। इसलिये पहले हम श्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हैं। तप का श्रम करने वाला श्रमण
हमारे देश में आध्यात्मिक उन्नयन हेतु प्रारम्भ से ही दो धाराएँ चल रही हैं- एक श्रमणधारा और दूसरी वैदिक धारा। जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन में दीक्षित अणगार को श्रमण' कहा गया है। हमारी चर्चा का विषय उस श्रमणधारा से है जिसमें आत्मोन्नयन के लिये संयम और तप रूपी श्रम किया जाता है एवं जिसका सूत्रपात इस अवसर्पिणी काल में भगवान् ऋषभदेव ने किया था और जो आज तक भी भगवान् महावीर के शासनकाल में अविच्छिन्न रूप से चल रही है। प्राचीन ग्रन्थों में भगवान् महावीर को जैन मुनि नहीं, किन्तु स्थान-स्थान पर 'निग्गंथे नायपुत्ते' अथवा 'समणे भगवं महावीरे' के विशेषणों से पुकारा गया है। प्राकृत में आए ‘समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं- श्रमण, शमन और समन। जो मोक्ष के लिये श्रम करता है वह 'श्रमण' । जो कषायों का उपशमन करता है, उसे 'शमन' कहते हैं। समन का अर्थ है जो प्राणिमात्र पर समभाव रखता है। 'श्रमण' शब्द श्रम धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है आत्म-विकास के लिये श्रम करना। आचार्य रविषेण ने कहा है
परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान्।
तपसा प्राप्यसंबधंतपोहि श्रम उच्यते ।।-पद्मचरितम् ,6.212 अर्थात् जो राजा अपने राज्य को छोड़कर तप के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं वे श्रमण कहलाते हैं, क्योंकि श्रम करे वही श्रमण और तपश्चरण ही श्रम कहा जाता है। महान् आचार्यों ने श्रमण शब्द को कई तरह से परिभाषित किया है, लेकिन उन सबका केन्द्रबिन्दु तप और संयम ही है। अनुयोगद्वार में कहा है
तो समणो जइ सुमणो, भावेण यजइण होईपावमणे। सयणे य जणे य समो, समो य माणाऽवमाणेसु
-अनुयोगद्वार 132/सूत्रांक 599 अर्थात् जो मन से सुमन (निर्मल मन वाला) है, संकल्प से कभी पापोन्मुख नहीं होता है, स्वजन तथा
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