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________________ 1311 || 10 जनवरी 2011 || | जिनवाणी देते हैं मानो किसी देवता की स्तुति कर रहे हों। अपने स्वामी को इस प्रकार का अहितकारी उपदेश देने वाला निन्दनीय माना गया है। इसी प्रकार हितप्रद वचन कहने वाले मंत्री अथवा मित्र की बात नहीं सुनने वाला स्वामी भी निन्दनीय है स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं, हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः। सदानुकूलेषु हि कुर्वते रति नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।। शासकवर्ग को इस प्रकार की बातों से मूर्ख बनाने वाले वे धूर्त वञ्चक मन ही मन सब समझते हैं और उपहास भी करते हैं, किन्तु धनमद से अचेतन राजा अथवा सुनने वाला व्यक्ति इस उपहास को समझ नहीं पाता और अपने आप को वैसा ही मानने लग जाता है। झूठा यशोगान उनको अच्छा लगने लगता है। ये अपने सेवकों से अपनी प्रशंसा सुनने के इच्छुक बन जाते हैं और अज्ञानतावश उन वञ्चनाओं (बातों) को सत्य मानकर अभिमान करने लगते हैं। वे अपने आपको देवता का अवतार समझने लग जाते हैं। स्वयं को देव समझने की धारणा उनकी मति भ्रष्ट कर देती है और इस प्रकार वे अपने आपमें कभी चतुर्भुजी विष्णु तो कभी तृतीय नेत्रधारी (भाललोचन) शिव की कल्पना करने लग जाते हैं। इस कारण दर्शन देने को भी वे अनुग्रह, दृष्टिपात को उपकार, सम्भाषण को पारितोषिक, आज्ञा देने को वरदान और स्पर्श करने को पवित्र कर देना- मानने लगते हैं। इसी मिथ्या घमण्ड में वे न तो देवों को प्रणाम करते हैं और न ही गुरुजनों का सम्मान करते हैं। वे विद्वानों का उपहास करते हैं, वृद्धों के उपदेश को अनर्थक प्रलाप समझते हैं और हितैषियों पर क्रुद्ध हो जाते हैं। उनका गुणगान करने वाला ही उनकी दृष्टि में हितैषी है और वे उसी का अभिवादन करते हैं, उसी के सान्निध्य में रहते हैं, उसे ही विश्वासपात्र समझते हैं, उसी का सम्मान करते हैं, उसी पर धन बरसाते हैं, उसी को दान देते हैं और उसी की बात सुनते हैं। यहाँ तक कि नितान्त क्रूर प्रकृति वाले पुरोहितों एवं सलाहकारों को ही वे अपना गुरु समझते हैं। सहस्रों राजाओं द्वारा भोग कर परित्यक्त लक्ष्मी में ही उनकी आसक्ति रहती है। सहज प्रेम रखने वाले भ्रातृगणों का मूलोच्छेद कर देने में तत्परता दिखाते हैं। इस प्रकार लम्पटों द्वारा बेवकूफ बनाए गए ये लोग उपहास के पात्र बन जाते हैं। ऐसे विवेकहीन राजा अथवा धनी व्यक्ति इन लम्पटों के लिए अवाञ्छित लाभ प्राप्त करने के साधन होते हैं, जिन्हें ये मूर्ख बनाकर स्वार्थसिद्ध करते हैं। भर्तृहरि ने भी कहा है कि विवेक से पतित हुए प्राणियों का पतन सैकड़ों प्रकार से होता है - 'विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।" गुरु के उपदेश का माहात्म्य कादम्बरी में मन्त्री शुकनास ने गुरु के उपदेश को समस्त मैल के प्रक्षालन में समर्थ जलरहित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229962
Book TitleSanmarg Pravrutti Hetu Guru Updesh ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRucha Sharma
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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