SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 127 | 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी बन्धन का कारण माना गया है। 'गीता' में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।" अर्थात् हे अर्जुन! रागरूपी रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जानो। वह जीव को कर्म और फल के सम्बन्ध से बाँधता है। शुकनास के अनुसार मृगतृष्णा की भाँति मनुष्य की इन्द्रियाँ सदा विषयभोग की ओर आकृष्ट रहती हैं। कसैली वस्तुओं, जैसे- आँवला, हरड़ आदि, के ऊपर जल प्राकृतिक माधुर्य से अधिक मीठा लगने लगा है। नवयौवन में भी मनुष्य का अन्तःकरण कामक्रोधादि से कसैला होता है, ऐसे में विषयरूप जल उसे आपाततः अधिक मधुर लगने लगता है। विषयों में यह अत्यासक्ति ही मनुष्य को नष्ट कर डालती है। मनुस्मृति में इन्द्रियों के वशीभूत और धर्म से च्युत मनुष्य को अविद्वान् माना गया है। ऐसे मनुष्य नीच जन्म और बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं। अज्ञान, ऐश्वर्य का दर्प, अहङ्कार, विषयाभिलाष एवं श्री, सौन्दर्य और शक्ति का मद- इन सभी को जागरित कर मनुष्य का पतन करने में 'युवावस्था' अकेले ही समर्थ होती है। यह यौवनावस्था सभी कालुष्यों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। ... गुरूपदेश द्वारा लक्ष्मी के दोषों का कथन ____ शुकनासोपदेश में लक्ष्मी में राग, वक्रता, चञ्चलता, मोहनशक्ति, मद और नैष्ठुर्य आदि अवगुणों का आख्यान किया गया है। यह रूपक द्वारा संकेतित किया गया है कि मानो समुद्र-मन्थन के समय लक्ष्मी ने क्रमशः पारिजात (कल्पवृक्ष) के पल्लवों से राग, चन्द्रमा की कोर से वक्रता, उच्चैःश्रवा नामक अश्व से चञ्चलता, कालकूट (विष) से मोहनशक्ति, मदिरा से मद और कौस्तुभमणि से निष्ठुरता- ये अवगुण विरहजन्य दुःख दूर करने के लिए, साङ्केतिक रूप में ग्रहण किए थे। इस प्रकार यह लक्ष्मी स्वभावतः ही आरुण्य उत्पन्न करने वाली, कुटिल, अस्थिर, वशीकरण सामर्थ्य से युक्त, उन्मादित कर देने वाली और निर्दयी प्रवृत्ति की है। ऐसे कल्मष (दुष्ट) स्वभाव वाली यह लक्ष्मी जिसका भी वरण करती है उसे भी कलुषित बना देती है। इस लक्ष्मी की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है और मिल भी जाए तो संरक्षण कठिन है। इस प्रकार इसका ‘योगक्षेम' "अत्यन्त दुष्कर है। रस्सी से बाँध दिया जाए या योद्धाओं की तलवारों के पिञ्जरे में कैद कर दिया जाए अथवा मदजल की वर्षा से अन्धकार कर देने वाले हाथियों के घेरे में रख दिया जाए- इस प्रकार कृत किसी भी यत्न के द्वारा इसका योगक्षेम सम्भव नहीं। परिचय, मर्यादा, रूप, कुलपरम्परा, शील, वैदग्ध्य (पाण्डित्य), शास्त्र, धर्म, सत्य, त्याग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229962
Book TitleSanmarg Pravrutti Hetu Guru Updesh ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRucha Sharma
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy