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________________ 133 | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी | छिपे हुए विषय का ज्ञान तो इनसे भी अभेद्य है। ऐसे प्रत्येक विषय का साक्षात्कार गुरु के उपदेश से ही सम्भव है। यह गुरु ज्ञान बिना उद्वेग का जागरण है। इस जागरण में किसी भी प्रकार की बेचैनी और थकान का अनुभव नहीं होता है। गुरु की दी हुई शिक्षा मनुष्य को विषयों से बचाने के लिए सदा ही जागरूक बनाए रखती है। गुरूपदेश का काल और पात्र गुरु के उपदेश की महत्ता इसी में है कि उस उपदेश को ग्रहण करने वाला उचित पात्र (शिष्य) भी हो। महर्षि पतञ्जलि ने गुरु को 'छत्र' की संज्ञा दी है। जिस प्रकार छत्र (छाता) गर्मी और वर्षादि से बचाता है, उसी प्रकार गुरु शिष्य के अज्ञान का निवारण करता है। छाता भी तभी मनुष्य का आच्छादन कर सकता है जबकि उस छाते के दण्ड को उचित तरीके से धारण किया जा सके। अतः 'छत्र' अर्थात् गुरु की आज्ञापालन (दण्डधारण) करने का जिसका स्वभाव हो वही छात्र' कहलाने का अधिकारी है। छत्र से ही 'छात्र' बना है।" छात्र अर्थात् शिष्य में वे गुण होने चाहिए जो विद्वानों से उनकी बुद्धि में निहित ज्ञान को ग्रहण कर लें। 'कादम्बरी' में शुकनास ने चन्द्रापीड से स्वयं कहा है कि उसने यह उपदेश चन्द्रापीड के गुणों से प्रसन्न होकर ही दिया है। उपदेश के साथ-साथ उसे ग्रहण करने के लिए सुयोग्य होना भी अनिवार्य है अन्यथा इसका औचित्य नहीं रहता है। अयोग्य मनुष्य के कान में गुरुज्ञान लाभदायक होने पर भी कष्ट को आमन्त्रित करता है। जैसे जल निर्मल होता हुआ भी अनुचित स्थान कर्ण (कान) के भीतर प्रविष्ट हो जाने पर कर्णशूल का कारण बनता है। महाकवि भारवि ने भी हितकारी वचनों का मधुर होना दुर्लभ ही बताया है- ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः" । यही लाभप्रद गुरु-ज्ञान योग्य पुरुष के कान में पहुँचने पर उसी प्रकार मुख की शोभा को बढ़ाता है जिस प्रकार शङ्ख के आभरण गज की शोभा बढ़ाते हैं। 'शुद्ध हृदय' पर ही उपदेश अपना गुण प्रकट करते हैं। चन्द्रमा की किरणें उसी स्फटिकमणि पर भलीभाँति पड़ती हैं जो निर्मल हो। अतः गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को दृढ़ करने के लिए दर्प, हिंसा आदि का त्याग, आचरण में शुद्धि आदि के द्वारा 'शुद्ध हृदय' को आवश्यक माना गया है। 'युवावस्था' गुरूपदेश के लिए स्वर्णिम समय है। विषयरस के आस्वादन से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए ही ‘यौवनारम्भ' (गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व) में यह उपदेश उचित है, क्योंकि कामबाण के प्रहार से जर्जरित हृदय में से तो यह उपदेश छलनी में से नीर की भाँति बहकर निकल जाता है। सांसारिकता में फँसे व्यक्ति पर गुरु-ज्ञान का प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे कुम्हार मिट्टी से बनाए हुए कच्चे घड़े को तो जैसी शक्ल देना चाहता है वैसी दे सकता है, किन्तु घड़े को पकाये जाने के पश्चात् उसकी आकृति में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता, उसी प्रकार गुरु का उपदेश भी प्रारम्भिक अवस्था में ही मानव को सुसंस्कारों से सज्जित कर सकता है, प्रौढ़ अवस्था में नहीं । शवावस्था के सुसंस्कार यावज्जीवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229962
Book TitleSanmarg Pravrutti Hetu Guru Updesh ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRucha Sharma
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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