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10 जनवरी 2011
3. जैन धर्म में गुरु का स्वरूप :
जिनवाणी
आवश्यकसूत्र में सम्यक्त्व का स्वरूप समझाते हुए आगमकार फरमाते हैं - 'जावज्जीवं सुसाहुणो
गुरुणो । '
अर्थात् जीवन-पर्यन्त के लिए सुसाधु मेरे गुरु हैं। जैन परम्परा में सुसाधु को गुरु कहा गया है। साधु शब्द का अर्थ है सीधा, सरल, सज्जन, भला। इसके साथ 'सु' शब्द जोड़ा गया है। 'सु' का तात्पर्य वीतराग प्रभु की आज्ञा के अनुसार चलने वाला। अर्थात् जिनेश्वर भगवान् के मार्ग पर चलने वाले पंच महाव्रत के धारक, पाँच समिति, तीन गुप्ति के आराधक, छह काय के रक्षक, तप एवं संयम युक्त जीवन व्यतीत करने वाले साधुओं को सुसाधु कहते हैं।
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4. सुसाधु की पहचान कैसे हो ? :
दुनिया में साधु तो कई मिल जायेंगे, पर सुसाधु की पहचान कैसे हो? इसके लिए आगमकार दशवैकालिक सूत्र के सातवें अध्ययन में फरमाते हैं -
बहवे इमे असाहू लोर वुच्चंति साहुणो । वे असा साहुत्ति, साहुं साहुत्ति आळवे ॥
- दशवैकालिक, 7.48 लोक में बहुत से असाधु भी साधु कहे जाते हैं, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति असाधु को साधु नहीं कहे और साधु को ही साधु कहे ।
णाणदंसणसंपण्णं संजमे य तवे रयं । एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमाळवे ॥
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- दशवैकालिक, 7.49
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन से युक्त सतरह प्रकार के संयम में और बारह प्रकार के तप में अनुरक्त साधु कोही साधु कहना चाहिए ।
'साहवो संजमुत्तरा" - तप-संयम से श्रेष्ठ साधु ही सुसाधु हैं और सुसाधु ही जैन धर्म में गुरु पद में वंदनीय हैं। जो सुसाधु होता है वही सच्चा भिक्षु, निर्ग्रन्थ और अणगार होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के पन्द्रहवें और दशवैकालिक सूत्र के दसवें 'सभिक्खू' अध्ययन में आदर्श भिक्षु अथवा सच्चा साधु कौन होता है उसका विस्तृत वर्णन किया गया है, जो जिज्ञासुओं के लिए द्रष्टव्य है ।
जैन धर्म आचार प्रधान है, गुण प्रधान है। इसमें आचार और गुणों की ही पूजा है। व्यक्ति-पूजा का जैन धर्म में कोई स्थान नहीं है । इसीलिए कहा है - 'गुणेहिं साहू" विनयादि गुणों को धारण करने से साधु होता और गुणवान् साधु ही गुरु तत्त्व में पूजनीय है। संक्षेप में सुसाधु की पहचान कैसे की जाय, इसके लिए बुजुर्ग श्रावक फरमाते हैं -
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